Book Title: Buddhiprabha 1963 10 SrNo 48
Author(s): Gunvant Shah
Publisher: Gunvant Shah

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Page 39
________________ ता. १०-१०-१९६३] बुद्धिप्रभा [३७ वाला, राइपर निराश होकर बैठने- पृथ्वीको गोवमें चू पड़ा हो। कहींसे पालों का सहारा। उसके कानों में आवाज बायी-कौन -~-तो क्यों नहीं मुझे भी देते हो तुम? सहाग ? .. ठिठके हुए गहीने निवे. -मंजिळतक पहुंचनेको व्यग्र राही। दन किया । -मोह. तो तुम्ही हो बह । श्रा -: :--जंगलको गंजा- जाओ और आगे। रित करता हुआ अट्टहास गज पहा--- राही आगे बड़ा। सामने विशाल अरे, मैं उसीको सहारा देता हूं जो जटा-जूटवाला एक साधु बैठा था। स्वयं अपना सहारा है। वह बोला-ॐ। . - तो.........? तो क्या ? पढ़ो चारों दिशाओं में यही स्वर मुखआगे । मार्ग तुम्हारा है। मंजिल रित हो उठा। फूलोंने और पत्तियोंने तुम्हारी है। इसी शन्दको दुहराया। राही बैठ राही बढ़ता गया। राह कमती गया । अपने-आप उसके मुखसे भी गयी । सूर्य ढलता गया ! यही शब्द उरित हुला-ॐ। ___ कहाँ है उसकी मजिल ? पहा -यही थी उसकी मंजिल । यही नहीं जानता। था उसका किनारा। यही था । कहाँ है उसका लक्ष्य ?--उसे उसका लक्ष्य ।। मालुम नहीं। __ मनुष्य बढ़ा जा रहा था। घुटकहाँ है उसका किनारा ?-वह नेसे ऊपर धोती पहने, एक छोटी-सी सर्वथा अपरिचित । चादर शरीरपर लपेटे। परन्तु उसमें लगन है। वह पाबोंमें छाले पड़ गये थे। बक्ष्यको खोजेमा । अपने किनारेका होठोंपर पपड़े। शरीर दुबला हो गया पता लगायेगा। अपनी मंजिल विना था, परंतु आँखों की ज्योति और पाये वह रुकने का नहीं । मला, असळी पाँवोंकी गतिमें कोई अन्तर नहीं साधक तो वही है जो बाधक तत्वोंको वा पाया था। रास्ते में फूलों-फलोंसे भी अनुकूल बना ले। लदी एक बगिया मिली। मनुष्य वहाँ ... सामने हो दिखायी दिया उसे थोड़ी देर तक गया । मालीने सपरि. विस्तृत मैदान । पसके पार वह पहुंचा। चितको देखा तो पूछ बैठा-कह! निराला मू-खण्ड था वह । मालूम जाते हो माई ? देता या स्वर्गका एक टुकड़ा मूलसे -बबाकी खोजमें । दीपोत्सवी अंक --

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