Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ [१४] इस युगके महान तत्त्ववेत्ता श्रीमद् राजचन्द्र जिस महापुरुषकी विश्वविहारी प्रज्ञा थी, अनेक जन्मोंमें आराधित जिसका योग था अर्थात् जन्मसे ही योगीश्वर जैसी जिसकी निरपराध वैराग्यमय दशा थी तथा सर्व जीवोंके प्रति जिसका विश्वव्यापी प्रेम था, ऐसे आश्चर्यमूर्ति महात्मा श्रीमद् राजचन्द्रका जन्म महान तत्त्वज्ञानियोंकी परम्परारूप इस भारतमूभिके गुजरात प्रदेशान्तर्गत सौराष्ट्रके ववाणिया बंदर नामक एक शान्त रमणीय गाँवके वणिक कुटुम्बमें विक्रम संवत् १९२४ (ईस्वी सन् १८६७) की कार्तिकी पूर्णिमा रविवारको रात्रिके दो बजे हुआ था । इनके पिताका नाम श्री रवजीभाई पंचाणभाई मेहता और माताका नाम श्री देवबाई था। इनके एक छोटा भाई और चार बहनें थीं। श्रीमद्जीका प्रेम-नाम 'लक्ष्मीनन्दन' था । बादमें यह नाम बदलकर 'रायचन्द' रखा गया और भविष्यमें आप 'श्रीमद् राजचन्द्र'के नामसे प्रसिद्ध हुए। बाल्यावस्था, समुच्चय वयचर्या श्रीमद्जीके पितामह श्रीकृष्णके भक्त थे और उनकी माताजी देवबाई जैनसंस्कार लाई थी। उन सभी संस्कारोंका मिश्रण किसी अदभुत ढंगसे गंगा-यमुनाके संगमकी भाँति हमारे बाल-महात्माके हृदयमें प्रवाहित हो रहा था । अपनी प्रौढ वाणीमें बाईस वर्षकी उम्रमें इस बाल्यावस्थाका वर्णन 'समुच्चयवयचर्या' नामके लेखमें उन्होंने स्वयं किया है “सात वर्ष तक बालवयकी खेलकूदका अत्यंत सेवन किया था । खेलकूदमें भी विजय पानेकी और राजेश्वर जैसी उच्च पदवी प्राप्त करनेकी परम अभिलाषा थी। वस्त्र पहननेकी, स्वच्छ रखनेकी, खानेपीनेकी. सोने-बैठनेकी. सारी विदेही दशा थी: फिर भी अन्तःकरण कोमल था। वह द याद आती है । आजका विवेकी ज्ञान उस वयमें होता तो मुझे मोक्षके लिये विशेष अभिलाषा न रहती | सात वर्षसे ग्यारह वर्ष तकका समय शिक्षा लेनेमें बीता । उस समय निरपराध स्मृति होनेसे एक ही बार पाठका अवलोकन करना पड़ता था । स्मृति ऐसी बलवत्तर थी कि वैसी स्मृति बहुत ही थोडे मनुष्योंमें इस कालमें, इस क्षेत्रमें होगी । पढनेके प्रमादी बहुत था । बातोंमें कुशल, खेलकूदमें रुचिवान और आनन्दी था । जिस समय शिक्षक पाठ पढाता, मात्र उसी समय पढकर उसका भावार्थ कह देता । उस समय मुझमें प्रीति-सरल वात्सल्यता-बहत थी। सबसे ऐक्य चाहता; सबमें भ्रातभाव हो तभी सुख, इसका मुझे स्वाभाविक ज्ञान था । उस समय कल्पित बातें करनेकी मुझे बहुत आदत थी । आठवें वर्षमें मैंने कविता की थी; जो बादमें जाँचने पर समाप थी। अभ्यास इतनी त्वरासे कर सका था कि जिस व्यक्तिने मुझे प्रथम पुस्तकका बोध देना आरम्भ किया था उसीको गुजराती शिक्षण भली-भाँति प्राप्त कर उसी पुस्तकका पुनः मैंने बोध किया था । मेरे पितामह कृष्णकी भक्ति करते थे। उनसे उस वयमें कृष्णकीर्तनके पद मैंने सुने थे तथा भिन्न भिन्न अवतारोंके संबंधमें चमत्कार सुने थे, जिससे मुझे भक्तिके साथ साथ उन अवतारोंमें प्रीति हो गई थी, और रामदासजी नामके साधुके पास मैंने बाललीलामें कंठी बँधवाई थी।.....उनके सम्प्रदायके महन्त होवें, जगह जगह पर चमत्कारसे हरिकथा करते होवें और त्यागी होवें तो कितना आनन्द आये ? यही कल्पना हुआ करती; तथा कोई वैभवी भूमिका देखता कि समर्थ वैभवशाली होनेकी इच्छा होती ।... गुजराती भाषाकी वाचनमालामें जगतकर्ता सम्बन्धी कितने ही स्थलोंमें उपदेश किया है वह मुझे दृढ हो गया था. जिससे जैन लोगोंके प्रति मझे बहत जगप्सा आती थी.......तथा उस समय प्रतिमाके अश्रद्धालु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 228