________________
२७२]
_[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
(कवित्त) राग रु द्वेष मोह की परिणति, लगी अनादि जीव कहँ दोय। तिनको निमित पाय परमाणे, बन्ध होय वसु भेदहिं सोय ॥ तिन” होय देह अरु इन्द्रिय,तहाँ विषै रत भुंजत लोय। तिनमें राग-द्वेष जो उपजत, तिहँ संसारचक्र फिर होय ॥८॥
(दोहा) रागादिक निर्णय कह्यो, थोरे में समुझाय। भैया सम्यक नैन तें, लीज्यो सबहि लखाय ॥९॥
छहढाला पण्डित द्यानतराय कृत
पहली ढाल ओंकार मंझार, पंच परम पद वसत हैं। तीन भुवन में सार, व, मन वच काय कर ॥१॥ अक्षर ज्ञान न मोहि, छन्द-भेद समझू नहीं। मति थोड़ी किम होय, भाषा अक्षर बावनी ॥२॥ आतम कठिन उपाय, पायो नर भव क्यों त । राई उदधि समाय, फिर ढूँढे नहिं पाइये ॥३॥ इह विध नर भव कोय, पाय विषय सुख में रमै। सो शठ अमृत खोय, हालाहल विष को पिये ॥४॥ ईश्वर भाखो येह, नर भव मत खोओ वृथा। फिर न मिलै यह देह, पछतावो बहु होयगो॥५॥ उत्तम नर अवतार, पायो दुख कर जगत में। यह जिय सोच विचार, कुछ टोसा संग लीजिये ॥६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org