Book Title: Bruhad Adhyatmik Path Sangraha
Author(s): Abhaykumar Devlali
Publisher: Kundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind

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Page 395
________________ ३८४] [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह जन्मते शिशुवत् अकिञ्चन नहीं तिल-तुष हाथ में। किञ्चित् परिग्रह साथ हो तो श्रमण जायें निगोद में ॥७८ ॥ जो आर्त होते जोड़ते रखते रखाते यत्न से। वे पाप मोहितमंती हैं वे श्रमण नहिं तिर्यञ्च हैं ॥७९॥ राग करते नारियों से दूसरों को दोष दें। सद्ज्ञान-दर्शन रहित हैं वे श्रमण नहिं तिर्यञ्च हैं।८० ॥ श्रावकों में शिष्यगण में नेह रखते श्रमण जो। हीन विनयाचार से वे श्रमण नहिं तिर्यञ्च हैं ॥८१ ॥ पार्श्वस्थ से भी हीन जो विश्वस्त महिला वर्ग में। रत ज्ञान-दर्शनचरण दें वे नहीं पथ अपवर्ग में ॥८२ ।। धर्म से हो लिङ्ग केवल लिङ्ग से न धर्म हो। समभाव को पहिचानिये द्रव्यलिङ्ग से क्या कार्य हो?॥८३ ।। विरक्त शिवरमणी वरें अनुरक्त बाँधे कर्म को। जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ॥८४॥ परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते। अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य को हैं चाहते ॥८५॥ सुशील है शुभकर्म और अशुभ करम कुशील है। संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं? ॥८६॥ ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती। इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बाँधती ॥८७॥ दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो। दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो।८८ ॥ पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है -जो न माने बात ये। संसार-सागर में भ्रमें मद-मोह से आच्छन्न वे॥८९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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