Book Title: Bruhad Adhyatmik Path Sangraha
Author(s): Abhaykumar Devlali
Publisher: Kundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind

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Page 393
________________ ३८२] [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को। यह मान्यता अज्ञान है, क्यों ज्ञानियों को मान्य हो ? ५२ ॥ मारो न मारो जीव को हो बन्ध अध्यवसान से। यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से॥५३॥ प्राणी मरें या ना मरें हिंसा अयत्नाचार से। तब बंध होता है नहीं जब रहें यत्नाचार से ॥५४॥ उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त सत् सत् द्रव्य का लक्षण कहा। पर्याय-गुणमय द्रव्य है - यह वचन जिनवर ने कहा ॥५५॥ पर्याय बिन ना द्रव्य हो ना द्रव्य बिन पर्याय ही। दोनों अनन्य रहें सदा - यह बात श्रमणों ने कही ॥५६॥ द्रव्य बिन गुण हों नहीं गुण बिना द्रव्य नहीं बने। गुण द्रव्य अव्यतिरिक्त हैं - यह कहा जिनवरदेव ने ॥५७॥ उत्पाद हो न अभाव का ना नाश हो सद्भाव में। उत्पाद-व्यय करते रहें सब द्रव्य गुण-पर्याय में ।।५८॥ असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब। सद्ज्ञान में वर्तमानवत् ही हैं सदा वर्तमान सब ॥१९॥ पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं। असद्भावी वे सभी पर्यायें ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ॥६० ॥ पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गईं हैं नष्ट जो। फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो ? ६१ ॥ अरहंत-भासित ग्रथित-गणधर सूत्र से ही श्रमणजन। परमार्थ का साधन करें अध्ययन करो हे भव्यजन!६२॥ डोरा सहित सुइ नहीं खोती गिरे चाहे वन-भवन। संसार-सागर पार हों जिनसूत्र के ज्ञायक श्रमण ॥६३ ॥ तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से। दृगमोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए ॥६४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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