Book Title: Bruhad Adhyatmik Path Sangraha
Author(s): Abhaykumar Devlali
Publisher: Kundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind

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Page 383
________________ ३७२] [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रा अन्यत्व भावना मोह रूप मृग तृष्णा जल में, मिथ्या जल चमके। मृग चेतन नित भ्रम में उठ-उठ, दौड़े थक-थक के॥ जल नहिं पावै प्राण गमावे, भटक-भटक मरता। वस्तु पराई मानै अपनी, भेद नहीं करता ॥१२॥ तू चेतन अरू देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी। मिले अनादि यतन तें बिछुड़े, ज्यों पय अरू पानी। रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जोलों पौरूष थके न तो लों, उद्यम सो चरना ॥१३॥ अशचि भावना तू नित पोखे यह सूखे ज्यों, धोवे त्यों मैली। निश दिन करे उपाय देह का, रोग दशा फैली॥ मात-पिता रज वीरज मिलकर, बनी देह तेरी। मांस हाड़ नश लहू राध की, प्रगट व्याधि घेरी ॥१४॥ काना पौण्डा पड़ा हाथ यह, चूँसे तो रोवै। फले अनन्त जु धर्म ध्यान की, भूमि विषै बोवे॥ केसर चन्दन पुष्प सुगन्धित, वस्तु देख सारी। देह परसतें होय, अपावन निश दिन मल जारी ॥१५॥ आस्रव भावना ज्यों सर जल आवत मोरी त्यों, आस्रव कर्मन को। दर्वित जीव प्रदेश गहै जब, पुद्गल भरमन को। भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को। पाप पुण्य के दोनों करता, कारण बन्धन को ॥१६॥ पन मिथ्यात योग पन्द्रह द्वादश अविरत जानो। पंच रू बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मानो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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