Book Title: Bruhad Adhyatmik Path Sangraha
Author(s): Abhaykumar Devlali
Publisher: Kundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind

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Page 375
________________ ३६४] [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह एक जीव तू आप त्रिकाल, ऊरध मध्य भवन पाताल। दूजो कोउ न तेरो साथ, सदा अकेलो फिरहिं अनाथ ॥५॥ भिन्न सदा पुद्गलत रहे, भ्रमबुद्धितै जड़ ता गहे। वे रूपी पुद्गल के खंध, तू चिन्मूरत सदा अबंध ॥६॥ अशुचि देख देहादिक अङ्ग, कौन कुवस्तु लगी तो सङ्ग। अस्थी माँस रुधिर गद गेह, मल मूतन लखि तजहु सनेह ॥७॥ आस्रव पर सों कीजे प्रीत, ताः बंध बढ़हिं विपरीत। पुद्गल तोहि अपनपो नाहिं, तू चेतन वे जड़ सब आँहि ॥८॥ संवर पर को रोकन भाव, सुख होवे को यही उपाव। आवे नहीं नये जहाँ कर्म, पिछले रुकि प्रगटै निजधर्म ॥९॥ थिति पूरी है खिर-खिर जाहिं, निर्जर भाव अधिक अधिकाहिं। निर्मल होय चिदानन्द आप, मिटै सहज परसङ्ग मिलाप॥१०॥ लोक माँहि तेरो कछु नाहिं, लोक आन तुम आन लखाहिं। वह षट् द्रव्यन को सब धाम, तू चिनमूरति आतमराम ॥११॥ दुर्लभ परद्रव्यनि को भाव, सो तोहि दुर्लभ है सुनिराव। जो तेरो है ज्ञान अनन्त, सो नहिं दुर्लभ सुनो महन्त ॥१२॥ धर्म सु आप स्वभाव हि जान, आप स्वभाव धर्म सोई मान। जब वह धर्म प्रगट तोहि होय, तब परमातम पद लखि सोय ॥१३॥ ये ही बारह भावन सार, तीर्थङ्कर भावहिं निरधार । है वैराग महाव्रत लेहिं, तब भव छमन जलाँजुलि देहि ॥१४॥ 'भैय्या' भावहु भाव अनूप, भावत होहु चरित शिवभूप। सुख अनन्त विलसह निश दीस, इम भाख्यो स्वामी जगदीस ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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