Book Title: Bramhacharya Darshan Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 4
________________ सम्पादकीय किसी भी महान् चिन्तक के चिन्तन को व्यवस्थित रूप देना सहज कार्य नहीं है। उसके गम्भीर चिन्तन की धारा में डुबकी लगाकर उसके विचारों के अन्तस्तथ्य को पकड़ना कुछ आसान काम नहीं है। वह महान् व्यक्तित्व अपने विचारों की जिस गहनता में रहता है, जीवन की उतनी गहराई में पहुँचना, साधारण व्यक्ति की शक्ति से बाहर की बात है । एक युग-पुरुष और युग-चिन्तक अपने युग की जन-चेतना के आवश्यक ज्ञान और विवेक को आत्मसात् करके, उसे नयी वाणी और नया चिन्तन प्रदान करता है। अपने युग को वह कर्म करने का नया मार्ग बतलाता है। वह जन-जन की प्रगतिशील विचारधारा को अपने अन्दर इस प्रकार आत्मसात् कर लेता है कि उस युग का एक भी उपयोगी ज्ञान-क्षेत्र उसकी सर्वग्राही प्रतिभा से बच नहीं पाता। अतः उस युग की जनता उस विराट, विशाल और व्यापक व्यक्तित्व को, उस युग का विचार-प्रभु मानती है । उपाध्याय कवि श्री जी महाराज ने अपने उन्मुक्त मनन मंथन दण्ड से, अपने जीवन-सागर का मंथन करके जो बोधामृत प्राप्त किया है, उसे उन्होंने जन-जन के कल्याण के लिए, प्राण-प्राण के विकास के लिए सर्वतो भावेन समभाव से विकीर्ण कर दिया है। उनका काव्य, उनका निबन्ध और उनकी दिव्य वाणी का जो प्रसार एवं प्रचार, इस युग में दृष्टिगोचर होता है वह उनके अपने अमित परिश्रम का ही फल है। किसी भी विषय पर लिखने से और बोलने से पूर्व, वह . अपने विचारों के अन्तस्तल तक पहुँच जाते हैं। जीवन के अन्तस्तल में पहुँचकर वह यह देखते हैं, कि इसमें तर्कसंगत कितना है और तर्कहीन कितना? तर्कहीन की उपेक्षा करके तर्कसंगत तथ्य को ही वे अभिव्यक्ति देते हैं। कुछ लोग कविजी के विचारों की यह कहकर आलोचना करते हैं कि-"वे नूतन हैं, तर्कशील हैं और क्रान्तिकारी हैं। अस्तु, नूतनता के नाम से प्रचलित कल्पित भय से जनता को कविश्रीजी के विचारों के स्पर्श से बचे रहने की यदा कदा घोषणाएँ करते रहते हैं। खेद है, जो कुछ उन्हें नया तथ्य उपलब्ध होता है, उसे ग्रहण करने का वे प्रयत्न नहीं कर पाते । नया भले ही कितना ही भव्य क्यों न हो, किन्तु, नया होने के कारण वह उनके लिए त्याज्य हो जाता है। उन रूढ़ि-वादियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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