Book Title: Bramhacharya Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ दानेन तुल्यो निधिरस्ति नान्यो, लोभाच्च नान्योऽस्ति परः पृथिव्याम् । विभूषणं शोल-समं न चान्यत्, संतोष-तुल्यं धनमस्ति नान्यत् ॥ दान के समान दूसरी निधि नहीं है, लोभ के समान दूसरा शत्रु नहीं है, शील के समान दूसरा भूषण नहीं है और संतोष के समान दूसरा धन नहीं है । देहाभिमाने गलिते ज्ञानेन परमात्मनः । यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ॥ परमात्म-भाव के ज्ञान से देह के अभिमान के नष्ट होने पर जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ समाधि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 250