Book Title: Bhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 9
________________ कर उसे स्वीकार करने का प्रयत्न भी किया और इस प्रकार विविध दर्शनों में समन्वय के सूत्र भी प्रस्तुत किए। हरिभद्र ने अन्य दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् उनमें निहित सार तत्त्व या सत्य को समझने का जो प्रयास किया है, वह भी अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है और उनके उदारचेता व्यक्तित्व को उजागर करता है । यद्यपि हरिभद्र चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हुए उसके भूत स्वभाववाद का खंडन करते हैं और उसके स्थान पर कर्मवाद की स्थापना करते हैं। किंतु, सिद्धांत में कर्म के जो दो रूप- द्रव्यकर्म और भावकर्म - माने गए हैं, उनमें एक ओर भावकर्म के स्थान को स्वीकार नहीं करने के कारण जहां वे चार्वाकदर्शन की समीक्षा करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे द्रव्यकर्म की अवधारणा को स्वीकार करते हुए चार्वाक के भूतस्वभाववाद की सार्थकता को भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि भौतिक तत्त्वों का प्रभाव भी चैतन्य पर पड़ता है। पंडित सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि हरिभद्र ने दोनों पक्षों-अर्थात् बौद्ध एवं मीमांसकों-के अनुसार कर्मवाद के प्रसंग में चित्तवासना की प्रमुखता को तथा चार्वाकों के अनुसार भौतिक तत्व की प्रमुखता को एक-एक पक्ष के रूप में परस्पर पूरक एवं सत्य मान कर कहा कि जैन कर्मवाद में चार्वाक और मीमांसकतथा बौद्धों के मंतव्यों का सुमेल हुआ है। ___इसी प्रकार 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र यद्यपि न्याय-वैशेषिक दर्शनों द्वारा मान्य ईश्वरवाद एवं जगत कर्तृत्ववाद की अवधारणाओं की समीक्षा करते हैं, किंतु जहां चार्वाकों, बौद्धों और अन्य जैन आचार्यों ने इन अवधारणाओं का खंडन ही किया है, वहां हरिभद्र इनकी भी सार्थकता को स्वीकार करते हैं। हरिभद्र ने ईश्वरवाद की अवधारणा में भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है। प्रथम तो यह कि मनुष्य में कष्ट के समय स्वाभाविक रूप से किसी ऐसी शक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है, जिसके द्वारा वह अपने में आत्मविश्वास जागृत कर सके । पंडित सुखलाल संघवी लिखते हैं- मानव मन की प्रवृत्तिया शरणागति की यह भावनामूल में असत्य तो नहीं कही जा सकती। उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुंचे तथा तर्क व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए उन्होंने (हरिभद्र ने) ईश्वर-कर्तृत्त्ववादी की अवधारणा को अपने ढंग से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। हरिभद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतमभूमिका को प्राप्त हुआ हो, वह असाधारण आत्मा है और वही ईश्वरया सिद्धपुरुष है। उस आदर्शस्वरूप को प्राप्त करने के कारण, कर्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य है। इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते हैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वत: अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और अपने भविष्यका निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह ईश्वर भी है और कर्ता भी है। इस प्रकार ईश्वर-कर्तृत्त्ववाद भी समीचीन ही सिद्ध होता है। हरिभद्र सांख्यों के 8/भारतीय दर्शन कोजैन दार्शनिकों का अवदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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