Book Title: Bhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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है, क्योंकि इसमें जैनन्याय के निरूपण के साथ भारतीय दर्शन की विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं का पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापन कर उनका परीक्षण किया गया है। देवसूरि के इस ग्रन्थ पर सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र आदि आचार्यों के ग्रन्थों का प्रभाव है। प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं न्यायकुमुदचन्द्र से इसकी तुलना की जा सकती है। स्याद्वादत्नाकर प्रौढ़ ललित संस्कृत में निबद्ध विश्रुत ग्रन्थराज है, किन्तु अभी तक इसका हिन्दी, अंग्रेजी आदि किसी भाषा में अनुवाद नहीं हुआ है, अतः भारतीय दर्शन परम्परा से जुड़े आधुनिक विद्वान भी इस विशाल ग्रन्थ का नहींवत् उपयोग कर रहे हैं। स्याद्वादरत्नाकर में विभिन्न दर्शनों की प्रमाण सम्बन्धी मान्यताओं का परीक्षण तो हुआ ही है, तत्त्वमीमांसीय मान्यताओं पर भी विचार हुआ है। जैनन्याय के विशिष्ट अध्येताओं के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपादेय है। इसमें भारतीय दर्शन के जो सिद्धान्त परीक्षित हुए हैं, उनमें प्रमुख हैं- (1) प्रमाणलक्षणविषयक बौद्ध न्याय एवं भाट्ट मीमांसकों के मत (2) न्याय वैशेषिकों द्वारा प्रतिपादित षड्विध सन्निकर्ष (3) शब्द ब्रह्मवाद (4) बौद्धसम्मत निर्विकल्पकप्रत्यक्ष (5) विवेकाख्याति, असत्ख्याति, प्रसिद्धार्थख्याति, आत्मख्याति, अनिर्वचनीयख्याति आदि (6) विज्ञानवाद (7) शून्यवाद (8) परमब्रह्मवादी वेदान्तमत (9) मीमांसकसम्मत ज्ञान की मात्र परप्रकाशकता (10) चार्वाकादि दर्शनों द्वारा मान्य प्रमाणों की संख्या (11) अर्थापतिप्रमाण तथा अभावप्रमाण की पृथक्ता (12) श्रोत्र की अप्राप्यकारिता (13) मीमांसककृत सर्वज्ञत्वनिषेध (14) विभिन्न दर्शनों में मान्य मोक्षस्वरूप आदि (15) स्मरण एवं प्रत्यभिज्ञान की अप्रमाणता विषयक बौद्धमत (16) बौद्धसम्मत हेतु त्रिरूपता एवं न्यायसम्मत हेतु पंचरूपता (17) बौद्धसम्मत तादात्क्य एवं तदुत्पत्ति से अविनाभाव (18) बौद्धों द्वारा भाब्द प्रमाण का अनुमान में अन्तर्भाव (19) वेद की अपौरूशेयता (20) स्फोटवाद (21) अन्विताभिधानवाद (22) अभिहितान्यवाद (23) शब्दनित्यत्ववाद (24) क्षणिकवाद (25) वैशेक्षिक सम्मत षट् पदार्थ (26) आत्मविशयक विभिन्न मत आदि। वादी देवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने
भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान/25
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