Book Title: Bhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 30
________________ गया है जो बौद्ध दर्शन के चित्त - चैतयिक के प्रतिपादन से भी विशिष्ट प्रतीत होता है । ग्रन्थकार ने आठ कर्मों से सम्बद्ध दर्शन के चित्त - चैतसिकों के प्रतिपादन से भी विशिष्ट प्रतीत होता है । ग्रन्थकार ने आठ कर्मों से सम्बद्ध कर औदयिक आदि भावों का निरूपण किया है। उपाध्यायजी ने 'नयकर्णिका' ग्रन्थ में सात नयों के 100-100 भेद मानकर 700 भेद बतलाए हैं। वस्तु के सामान्य एवं विशेष धर्मो के स्वरूप तथा नैगमादि नयों की उत्तरोत्तर विशुद्धता का भी प्रतिपादन किया है। 'पंचसमवाय स्तवन' में लेखक द्वारा काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ रूप कारणपंचक जैसे तात्त्विक विषय को गेय और सर्वग्राह्य बना दिया गया है। 'षट्त्रिंशज्जल्पसंग्रह संक्षेप में 36 जल्प का संक्षिप्त विवेचन है। इस प्रकार उपाध्याय विनयविजय ने अपने तात्त्विक चिन्तन को लोकप्रकाश जैसे बृहत्काय ग्रन्थ में नये आयाम में प्रस्तुत किया है, जो सम्पूर्ण जैनदर्शन को समझने के लिए एक आधार ग्रन्थ के रूप में प्रवेश मार्ग है। भारतीय दर्शन में इस नवीन विधा के रूप में उपाध्याय विनयविजय का महनीय अवदान है। Jain Education International भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान / 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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