Book Title: Bhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 25
________________ आचार्य वादीदेवसूरि और उनके शिष्य रत्नप्रभसूरि का भारतीय दार्शनिक को अवदान प्रो. धर्मचन्द्र जैन आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत - विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर वादविद्या में निपुण देवसूरि (1086 - 1169 ई.) श्वेताम्बर जैन परम्परा के महान दार्शनिक आचार्य थे। ये गुजरात में राजा सिद्धराज जयसिंह के काल में हुए तथा आचार्य हेमचन्द्रसूरि से जन्म में 2 वर्ष बड़े थे। इनका बचपन का नाम पूर्णचन्द्र था तथा मुनिचन्द्रसूरि का शिष्यत्व अंगीकार करने पर इनका नाम रामचन्द्र रखा गया और 31 वर्ष की वय में आचार्य बनने पर ये देवसूरि कहलाए । वादविद्या में पारंगत एवं विजयी होने से इनके नाम के पूर्व वादी विशेषण जोड़ा गया । प्रभावकचरित के अनुसार वादी देवसूरि की दो ही दार्शनिक रचनाएँ प्रसिद्ध हैं- प्रमाणनयतत्त्वालोक एवं उस पर स्याद्वादरत्नाकर नामक विशालकायटीका । प्रमाणनयतत्त्वालोक जैनन्याय की संस्कृत सूत्र शैली में निबद्ध ऐसी विशिष्ट कृति है, जिसमें प्रमाण, नय एवं वाद का व्यवस्थित निरूपण हुआ है । इसमें आठ परिच्छेद हैं, जिनके प्रथम छह परिच्छेदों में प्रमाण सम्बन्धी निरूपण है तथा सप्तम एवं अष्टम परिच्छेद में क्रमशः नय एवं वाद का विवेचन हुआ है । देवसूरि के पूर्व संस्कृत सूत्र शैली में दिगम्बर दार्शनिक माणिक्यनन्दिविरचित 'परीक्षामुख' ग्रन्थ प्राप्त होता है, जिसमें नय एवं वादविद्या का विवेचन नहीं है तथा प्रमाणनिरूपण में भी उसकी अपेक्षा प्रमाणनयतत्त्वालोक अधिक परिष्कृत रचना प्रतीत होती है। स्त्रीमुक्ति एवं केवलिभुक्ति के निषेधविषयक दिगम्बर मन्तव्य का भी इसमें खण्डन किया गया है। इस पर अनेक टीकाओं का निर्माण हुआ, जिनमें स्वयंवादी देवसूरि का स्याद्वादत्नाकर प्रसिद्ध है । स्याद्वादरत्नाकर को भारतीय दर्शन का प्रौढ़ ग्रन्थ कहा जा सकता 24 / भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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