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आचार्य हरिभद्र का भारतीय दर्शन को अवदान
-प्रो. सागरमल जैन
आचार्य हरिभद्र जैनधर्म के प्रखर प्रतिभासम्पन्न एवं बहुश्रुत आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा विपुल एवं बहुआयामी साहित्य का सृजन किया है। उन्होंने दर्शन, धर्म, योग, आचार, उपदेश, व्यंग्य और चरित-काव्य आदि विविध विधाओं के ग्रंथों की रचना की है। मौलिक साहित्य के साथ-साथ उनका टीका साहित्य भी विपुल है। जैन धर्म में योग संबंधी साहित्य के तो वे आदि प्रणेता हैं। इसी प्रकार आगमिक ग्रंथों की संस्कृत भाषा में टीका करने वाले जैन-परंपरा में वे प्रथम टीकाकार भी हैं। उनके पूर्व तक आगमों पर जो नियुक्ति, और भाष्य लिखे गये थे, वे मूलतः प्राकृत लिखे गये चूर्णियाँ भी संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा में लिखी गयीं। विशुद्ध संस्कृत भाषा में आगमिक ग्रंथों की टीका लेखन का सूत्रपात में आचार्य हरिभद्र ने ही किया। भाषा की दृष्टि से उनके ग्रंथ संस्कृत और प्राकृत दानों ही भाषाओं में मिलते हैं। अनुश्रुति तो यह है कि उन्होंने 1444 ग्रंथों की रचना की थी, किंतु वर्तमान में हमें उनके नाम पर चढ़े हुए लगभग 75 ग्रंथ ही उपलब्ध होते हैं। यद्यपि विद्वानों की यह मान्यता है कि इनमें से कुछ ग्रंथ वस्तुतः याकिनीसूनु हरिभद्र की कृति न होकर किन्हीं दूसरे हरिभद्र नामक आचार्यों की कृतियाँ हैं। पंडित सुखलालजी ने इनमें से लगभग 45 गंथों को तो निर्विवाद रूप से उनकी कृति स्वीकार किया है।
जहाँ तक हरिभद्र की दार्शनिक कृतियों का प्रश्न है- उनमें षट्दर्शन समुच्चय (दर्शन संग्राहक ग्रंथ) शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकांतजय पताका, अनेकांतप्रवेश, अनेकांतप्रघट्ट, लोकतत्त्व निर्णय आदि प्रमुख हैं, वहीं उन्होंने योग साधना को लेकर भी चार ग्रंथों की रचना की है- 1. योगविंशिका, 2. योगशतक 3. योगबिंदु और, 4. योगदृष्टिसमुच्चय। इस प्रकार दर्शन और योगसधना दोनों ही क्षेत्रों में उनका अवदान रहा हुआ है, 22/भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान
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