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सात दर्शनों का संक्षेप में परिचय दिया गया है, किंतु अंत में अन्य दर्शनों को दुर्नय की कोटि में रखकर जैन दर्शन को उच्च श्रेणी में रखा गया है। इस प्रकार इसका लेखक भी अपने को सांप्रदायिक अभिनिवेश से दूर नहीं रख सका।
- इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शनसंग्राहक-ग्रंथों की रचना में भारतीय इतिहास में हरिभद्र ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने निष्पक्ष भाव से और पूरी प्रामाणिकता के साथ अपने ग्रंथों में अन्य दर्शनों का विवरण दिया है । इस क्षेत्र में वे अभी तक अद्वितीय हैं। अतः हमें मानना होगा कि जैन दार्शनिकों ने भारतीय दर्शन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण अवदान प्रस्तुत किया है।
यदि जैन दार्शनिकों के भारतीय दर्शन के क्षेत्र में दिये गये अवदान को सम्यक् प्रकार से समझना है तो हमें उसे निम्न चार कालखण्डों में विभाजित करके देखना होगा- 1. आगम युग 2. दर्शन युग 3. नव्य न्याय युग और 4. आधुनिक युग आगम युग
जहाँ तक आगमयुग का प्रश्न है, इस कालखण्ड में जैन दर्शन अपना स्वरूप ग्रहण कर रहा था। इसे हम सूत्र युग भी कह सकते है, क्योंकि इस कालखण्ड में विभिन्न दर्शनों के सूत्र ग्रन्थों की रचना हुई जैसे- सांख्य सूत्र, योग सूत्र, न्याय सूत्र, वैशेषिक सूत्र, मीमांसा सूत्र और ब्रह्म सूत्र। ये सभी सूत्र ग्रन्थ वैदिक धारा के विभिन्न भारतीय दर्शन प्रस्थानों से सम्बन्धित थे। यद्यपि सांख्य सूत्र और योग सूत्र पर श्रमणधारा का प्रभाव स्पष्टतः देखा जाता है।
श्रमणधारा के तीन दर्शनों- जैन, बौद्ध और चार्वाक- में से बौद्ध और चार्वाक दर्शन के कोई स्वतन्त्र और सामान्य सूत्र ग्रन्थ नहीं मिलते है। बौद्धों के सुत्त पिटक और अभिधम्म उनकी दार्शनिक अवधारणाओं को प्रस्तुत करते हैं, फिर भी वे वस्तुतः कोई सूत्र ग्रन्थ नहीं हैं। जहाँ तक जैनों का प्रश्न है, उमास्वाति ने इस कालखण्ड में तत्त्वार्थसूत्र की रचना की और समग्र जैनदर्शन को अति संक्षेप में प्रस्तुत भी किया। यद्यपि इस कालखण्ड में जैन प्रमाण मीमांसा, स्याद्वाद-सप्तभंगी, गुणस्थान सिद्धान्त आदि का 14/भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान •
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