Book Title: Bhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 19
________________ प्रमाणनिर्णय आदि दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की थी। इन सभी कृतियो हमे एकान्तवाद की समीक्षा के साथ अनेकांत दृष्टि के प्रस्तुतीकरण का प्रयास भी हुआ है। इसी कालखण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य वादिदेवसूरि हुए उन्होने प्रमाणनयतत्वालोक तथा उसी पर स्वोपज्ञ टीका के रूप में ‘स्यादवादरत्नाकर' जैसे जैन न्याय के आकर ग्रन्थों का निर्माण किया और उनके ही शिष्य रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका की रचना की थी, इन सभी में अन्य भारतीय दर्शनों की अनेक दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा भी है। 12वीं शताब्दी में हुए श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र ने मुख्य रूप से जैनन्याय पर प्रमाणमीमांसा (अपूर्ण) और दार्शनिक समीक्षा के रूप में अन्ययोगव्यवच्छेदिका-इन दो महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। यद्यपि संस्कृत व्याकरण एवं साहित्य के क्षेत्र में उनका अवदान प्रचुर है, तथापि हमने यहाँ उनके दार्शनिक ग्रन्थों की ही चर्चा की है। यद्यपि 13वी, 14वी, 15वी और 16वी शताब्दी में भी जैन आचार्यो ने संस्कृत भाषा में कुछ दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु वे ग्रन्थ अधिक महत्वपूर्ण न होने से हम यहाँ उनकी चर्चा नही कर रहे हैं, यद्यपि इस काल खण्ड में कुछ दार्शनिक ग्रन्थों की टीकाएँ भी लिखी गई जैसे हेमचन्द्र की अन्ययोगव्यवछेदिका की मल्लिषण की 'स्यादवादमन्जरी' नामक टीका,तथा हरिभद्र के षडदर्शनसमुच्चय की गुणरत्न टीका आदि। ये सभी टीकाएँ समालोचनात्मक दृष्टि से युक्त है। नव्यन्याय युग यद्यपि नव्यन्याय की दार्शनिक परम्परा का प्रारम्भ चौदहवी शती से भारतीय दार्शनिक गंगेश से होता है, किन्तु जैन दार्शनिकों ने सत्रहवीं शती तक इस शैली को नहीं अपनाया। १७वी शताब्दी में श्वेताम्बर परम्परा में उपाध्याय यशोविजय नामक एक प्रसिद्ध जैन दार्शनिक हुए, जिनने अध्यात्मसार, ज्ञानसार, भाषारहस्य आदि दर्शन के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे है। जैन परम्परा में इन्होंने सर्वप्रथम नव्यन्याय शैली को अपनाया, अध्यात्म के क्षेत्र में अध्यात्ममतसमीक्षा, अध्यात्मसार, ज्ञानसार आदि तथा दर्शन के क्षेत्र में जैन तर्कभाषा, नयोपदेश, नयसहस्य, न्यायालोक, स्याद्वादकल्पलता आदि इनके दर्शन के अनेक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। जैन 18/भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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