Book Title: Bhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 18
________________ प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्रसूरि हुए. जिन्होंने प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में अपनी कलम चलाई। हरिभद्रसूरि ने जहाँ एक ओर अनेक जैनागमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी, वहीं उन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया। उनके द्वारा रचित निम्न दार्शनिक ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध हैं- षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्तप्रघट्ट । साथ ही उन्होंने बौद्ध दार्शनिक दिड्. नाग के न्यायप्रवेश की टीका भी लिखी। इसके अतिरिक्त उन्होने 'योगदृष्टिसमुच्चय', योगशतक, योगविंशिका आदि ग्रन्थ भी लिखे। हरिभद्र पहले व्यक्ति है, जिन्होने सर्वप्रथम षट्दर्शनसमुच्चय नामक ग्रन्थ पूर्ण निष्पक्ष भाव से लिखा। जबकि शास्त्रवार्तासमुच्चय में उन्होंने समन्वयात्मक एवं आदरपूर्ण दृष्टि से सभी भारतीय दर्शन को प्रस्तुत किया। हरिभद्र के समकाल में या उनके कुछ पश्चात् दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलंक और विद्यानन्दसूरि हुए, जिन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की थी। जहाँ अकलंक ने तत्त्वार्थसूत्र पर ‘राजवर्तिक' नामक टीका के साथ साथ न्याय-विनिश्चय, सिद्धि-विनिश्चय, प्रमाण-संग्रह, लधीयस्त्री-अष्टशती एवं प्रमाण संग्रह आदि दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। वही विद्यानन्द ने भी तत्त्वार्थसूत्र पर श्लोकवार्तिकटीका के साथ साथ आप्त-परीक्षा, प्रमाण-परीक्षा, सत्यशासन-परीक्षा, अष्टसहस्त्री आदि गम्भीर दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। इनमें उन्होंने अन्य भारतीयदर्शनों की एकान्तवादिता की समीक्षा भी की। 10वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सिद्धसेन के न्यायावतार पर श्वेताम्बराचार्य सिद्धऋषि ने विस्तृत टीका की रचना की। इसीकाल में प्रभाचन्द, कुमुदचन्द्र एवं वादिराजसूरि नामक दिगम्बर आचार्यों ने क्रमशः प्रमेयकमलमार्तव्ड न्यायकुमुदचन्द्र, न्याय-विनिश्चय टीका आदि महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। इसके पश्चात् 11वीं शताब्दी में देवसेन ने लघुनयचक्र, बृहदनयचक्र, आलापपद्धति, माणिक्यनन्दी के परीक्षामुख तथा अनन्तवीर्य ने सिद्धि-विनिश्चय टीका आदि दार्शनिक कृतियों का सृजन किया। इसी कालखण्ड मैं श्वेताम्बर परम्परा के अभयदेव सूरि ने सिद्धसेन के सन्मति-तर्क पर वादमहार्णव नामक टीका ग्रन्थ की रचना की। इसी क्रम में दिगम्बर आचार्य अनन्तकीर्ति ने लघुसर्वज्ञसिद्धि, बृहद्सर्वज्ञसिद्धि, __भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान/17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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