Book Title: Bhartiya Darshan ko Jain Darshaniko ka Avadan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 10
________________ प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करते हैं, किंतु वे प्रकृति को जैन परंपरा में स्वीकृत कर्म प्रकृति के रूप में देखते हैं। वे लिखते हैं कि सत्य-न्याय की दृष्टि से प्रकृति कर्म-प्रकृति ही है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है, क्योंकि उसके वक्ता कपिल दिव्य-पुरुष और महामुनि हैं। हरिभद्र ने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में बौद्धों के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है, किंतु वे इन धारणाओं में निहित सत्य को भी देखने का प्रयत्न करते हैं और कहते हैं कि महामुनि और अर्हत् बुद्ध उद्देश्यहीन होकर किसी सिद्धांत का उपदेश नहीं करते। उन्होंने क्षणिकवाद का उपदेशपदार्थ के प्रति हमारी आसक्ति के निवारण के लिए ही दिया है। क्योंकि जब वस्तु का अनित्य और विनाशशील स्वरूप समझ में आ जाता है, तो उसके प्रति आसक्तिगहरी नहीं होती। इसी प्रकार विज्ञानवाद का उपदेश भी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा को समाप्त करने के लिए ही है। यदि सब कुछ चित्त के विकल्प हैं और बाह्य रूप सत्य नहीं हैं, तो उनके प्रति तृष्णा उत्पन्न ही नहीं होगी। इसी प्रकार कुछ साधकों की मनोभूमिका को ध्यान में रख कर संसार की निस्सारता का बोध कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया है। इस प्रकार हरिभद्र की दृष्टि में बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद - इन तीनों सिद्धांतों का मूल उद्देश्य यही है कि व्यक्ति की जगत के प्रति के प्रति उत्पन्न होने वाली तृष्णा का उच्छेद हो। अद्वैतवाद की समीक्षा करते हुए हरिभद्र स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि सामान्य की दृष्टि से तो अद्वैत की अवधारणा भी सत्य है। इसके साथ ही साथवे यह भी बताते हैं कि विषमता के निवारण के लिए और समभाव की स्थापना के लिए अद्वैत की भूमिका भी आवश्यक है। अद्वैतपरायेपन की भावना का निषेध करता है, इस प्रकार द्वेष का उपशमन करता है। अत: वह भी असत्य नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार अद्वैत वेदांत के ज्ञानमार्ग को भी वे समीचीन ही स्वीकार करते हैं। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिए न होकर उन दार्शनिक परंपराओं की सत्यता के मूल्यांकन के लिए ही है। स्वयं उन्होंने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्राक्कथन मेंस्पष्ट किया है कि प्रस्तुत ग्रंथ का उद्देश्य अन्य परंपराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना और सत्य का बोध कराना है। दर्शनग्राहक ग्रंथों की निष्पक्ष रचना यदि हम भारतीय दर्शन के समग्र इतिहास में सभी प्रमुख दर्शनों के सिद्धांत को एक ही ग्रंथ में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने के क्षेत्र में हुए प्रयत्नों को देखते हैं, तो हमारी दृष्टि में हरिभद्र ही वे प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों की भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान/9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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