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अपनी बात भगवान महावीर ने कहा है
"उद्देसो पासगस्स नत्थि" जो स्वय द्रष्टा है, उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नही होती । प्रश्न हो सकता है फिर ये वडे-बडे शास्त्र, हजारो ग्रन्थ और लाखो पेजो मे भरी शिक्षाएं किसलिए ? क्यो ? और फिर नये-नये शिक्षा ग्रन्थ तयार क्यो हो रहे हैं ?
स्पष्ट है कि विवेकी को, द्रष्टा को, ज्ञानी को उपदेश की जरूरत नही, किन्तु आज मनुष्य का विवेक जागृत कहाँ है ? उसकी आँखे कहां खुली है ? उसका ज्ञान कहाँ उजागर है ? आँखे होते हुए भी वह अधो की तरह आचरण कर रहा है ? उसका विवेक एव ज्ञान सुप्त है, मोह के सघन आवरणो मे दबा हुआ है जैसे घने बादलो के पीछे सूर्य का प्रकाश । उस सुप्त विवेक को जगाने के लिए, मोह आवरण को हटाने के लिए और आँख मूंदकर बैठे मनुष्य की दृष्टि उघाडने तथा उसके द्रष्टा रूप को प्रकट करने के लिए ही महापुरुषो के उपदेश, शिक्षा एव सुवचनो की आवश्यकता है । आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है
प्रबोधाय, विवेकाय, हिताय प्रशमाय च ।
सम्यक् तत्वोपदेशाय सतां सूक्तिः प्रवर्तते। मनुष्य के अन्तर हृदय को जगाने के लिए, सत्य-असत्य का विवेक व्यक्त करने के लिए, लोक-कल्याण के लिए, विकारो एव मोह को दूर करने के लिए तथा सम्यक् तत्व की जानकारी के लिए सत्पुरुपो की सूक्ति एव उपदेश का प्रवर्तन होता है। यही वात शब्दान्तर से महर्षिवशिष्ट ने स्वीकार की है
अतिमोहापहारिण्य सूक्तयो हि महीयसाम् । महापुरुषो के वचन मोह को दूर करने वाले होते हैं । भगवान महावीर के उपदेश, वीतराग के उपदेश हैं, सत्य द्रष्टा की वाणी