Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ भूमिका ix तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ।। -मीमांसाश्लोकवार्तिक, वनवाद, २१-२२ कुभारिलभट्ट के इस वक्तव्य का भाव-भाषा दोनों दृष्टियों से आचार्य समन्तभद्र की इस उक्ति के साथ आश्चर्यजनक साम्य वैदिक-अवैदिक की विभाजक रेखा का अतिक्रमण कर जाता घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥आप्तमीमांसा, ५९-६० वस्तु की अनेकान्तात्मकता की सिद्धि करते हुए मीमांसा दार्शनिक कुमारिलभट्ट ने अनेकान्त वस्तु के ज्ञान को संदिग्ध होने से अप्रमाण नहीं माना है, अपितु वे उसे सुनिश्चित स्वीकार करते हैं,यथा वस्त्वनेकत्ववादाच्च न सन्दिग्धाप्रमाणता। ज्ञानं सन्दिह्यते यत्र तत्र न स्यात् प्रमाणता॥ इहानैकान्तिकं वस्त्वित्येवं ज्ञानं सुनिश्चितम्। -श्लोकवार्तिक, वनवाद७९-८० मीमांसा जैसे विशुद्ध वैदिकदर्शन का जैनदर्शन से अनेकान्त के सम्बन्ध में ऐसी अक्षरशः सहमति प्रकट करना इस बात का सूचक है कि कुछ दृष्टियों से जैनदर्शन श्रमण होते हुए भी वैदिक दर्शनों से हाथ मिलाता नजर आता है । इसके विपरीत उसका श्रमणदर्शन होने पर भी बौद्धों से अनेक विषयों पर मौलिक मतभेद है। डॉ. धर्मचन्द जैन ने प्रस्तुत ग्रन्थ में बौद्ध तथा जैन प्रमाणमीमांसीय आकर ग्रन्थों का अध्ययन करके उन अंशों को केन्द्र में रखा है,जिन अंशों में बौद्ध दृष्टि का जैनदृष्टि से खण्डन किया गया है । यद्यपि जैनदृष्टि का भी खण्डन बौद्ध ग्रन्थों में यत्र तत्र उपलब्ध हो जाता है, तथापि सामान्यतः बौद्धों ने जैनदृष्टि की उपेक्षा की है। यह देखने में आया है कि जैन लेखकों ने जैनेतर मतों का खूब ऊहापोह किया है,किन्तु जैन मत की न केवल बौद्धों द्वारा अपितु अन्य दार्शनिकों द्वारा भी उपेक्षा ही हुई । जैन दार्शनिक जैनेतर मान्यताओं का खण्डन संगोपांग रूप में करते हैं, किन्तु जैनेतर दार्शनिक जैनों के अनेकान्त का खण्डन सरसरी तौर पर करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्रीमानलेते हैं । अनेकान्तदृष्टि तथा वेदान्तियों औरबौद्धों की प्रत्ययवादी दृष्टि के बीच जो मौलिक मतभेद है उसे सातकड़ी मुकर्जी ने अपने मन्थ में अपेक्षाकृत अधिक गम्भीरता से विवेचित किया है । उनका कहना है कि वेदान्ती और बौद्ध कुछ तों को स्वतः सिद्ध मानते हैं । उनकी दृष्टि में ऐसे स्वतः सिद्ध सत्यों को सत्यापित करने के लिए अनुभव का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरणतः यह बात स्वतः सिद्ध सत्य है कि 'अ''ब' है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 482