Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 15
________________ viii बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा प्रमेयों का निरूपण करने वाले वैशेषिक दर्शन से जोड़ दिया गया। किन्तु वैशेषिक दर्शन के प्रमेयनिरूपण से सभी वैदिक सहमत नहीं थे,अतः सांख्य,मीमांसा तथा वेदान्त ने भी अपने अपने स्वतंत्र प्रमाणशास्त्र विकसित किये । प्रमाणशास्त्रों के इतने अधिक प्रस्थान स्थापित हो जाने पर इन प्रमाणशास्त्रों के बीच परस्पर मतभेद उभर कर आना स्वाभाविक था। विभिन्न प्रमाणशास्त्रों में एक-दूसरे की प्रमाणशास्त्रीय अवधारणाओं का खण्डन-मण्डन भी इसी क्रम में एक बार प्रारम्भ हुआ तो प्रायः एक सहस्र वर्ष तक पूरे भारतीय चिन्तन के पटल पर यही खण्डन -मण्डन बुरी तरह छाया रहा। सर्वसाधारण के लिए सुबोध था आगमयुग का सत्य का निरूपण । दार्शनिक युग के प्रारम्भ का प्रमाण-निरूपण भी दुर्गम नहीं है, किन्तु जब विभिन्न प्रमाणशास्त्रों के बीच विवाद चालू हुआ तो बाल की खाल निकालने में आचार्यों ने अपने-अपने पाण्डित्य का प्रकर्ष प्रदर्शित करना प्रारम्भ किया। पाण्डित्य-प्रदर्शन के इस युग का साहित्य सर्वसाधारण के लिए तो दुर्बोध है ही,सामान्यतः विद्वान् भी इस साहित्य से भयभीत रहते हैं । डॉ.धर्मचन्द जैन ने इसी कोटि के दुर्बोध साहित्य की प्रन्थियाँ खोलने का दुर्लभ साहस प्रस्तुत कृति में दिखलाया है। मेरे मित्र स्वर्गीय डॉ. रामचन्द्र द्विवेदी का कुशल मार्गदर्शन उन्हें प्राप्त था तथा उनकी स्वयं की बुद्धि भी सहज ही तर्कप्रवण है, अतः यह कहते हुए मुझे हार्दिक सन्तोष हो रहा है कि शैक्षणिक अराजकता के इस युग में डॉ.जैन की यह कृति एक अपवादात्मक उपलब्धि के रूप में मानी जानी चाहिये। ___ यद्यपि बौद्ध तथा जैन,दोनों परम्पराएं श्रमण हैं,तथापि दोनों के बीच कुछ मौलिक मतभेद हैं। बौद्ध अनात्मवादी हैं,जैन आत्मवादी हैं । बौद्ध न ध्रौव्य को मानता है,न सामान्य को। जैन धौव्य को उत्पादव्यय का तथा सामान्य को विशेष का अपरिहार्य अङ्ग मानता है । अतः . इन दोनों परम्पराओं के आचार्यों के बीच प्रमाणमीमांसा को लेकर शास्त्रार्थ होना स्वाभाविक ही था। वस्तुतः दर्शनयुग में आकर भारतीय चिन्तन की धाराओं को ब्राह्मण-श्रमण के रूप में विभाजित करने की परम्परा सुविचारित नहीं है। उदाहरणतः सांख्य दर्शन को ब्राह्मण परम्परा में माना जाता है, किन्तु विचार करने पर प्रतीत होगा कि श्रमण मानी जाने वाली बौद्ध विचारधारा की अपेक्षा सांख्य दर्शन जैन दर्शन के कहीं अधिक निकट है । यह निकटता इतनी अधिक है कि आचार्य कुन्दकुन्द को यह स्पष्टीकरण देना पड़ा कि आत्मा के परकर्तृत्व का खण्डन करने के बावजूद वे सांख्यदर्शन का समर्थन नहीं कर रहे हैं कम्पइयवग्गणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा॥-समयसार, २.११७ इसी प्रकार मीमांसा दर्शन में अनेकान्त को लगभग ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया है । यथा वर्धमानकभनेच रुचकः क्रियते यदा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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