Book Title: Bagad ke lok Sahitya ki Zankhi Author(s): L D Joshi Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 2
________________ ७० प्रो. डॉ. एल. डी. जोशी रूप योगीराज मावजी महाराज के चौपड़ों में स्पष्ट दृष्टव्य है। वागड़ी में साहित्य रचना काफी प्राचीन काल से ही हुई दिखाई देती है। महाकवि माघ ने शिशुपाल वध की रचना वागड़ में की थी, ऐसी एक किंवदन्ति मज़ाक के रूप में गुजरात प्रांतीय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री कुशलगढ़ निवासी श्री जेठालालजी जोशी ने मुझसे कही थी। चारण साहित्य पुरानी डिंगल-पिंगल की शैलियों में प्राप्य है। जैन साहित्य की रचना भी वागड़ में ठीक प्रमाण में हुई मानी जाती है। भट्टारक ज्ञानभूषण की तत्वज्ञान तरंगिणी (वि. १५६०), भट्टारक शुभचंद्र के पांडवपुराण की (वि. १६०८), भट्टारक गुणचंद्र द्वारा अनंतजिनव्रतपूजा (वि. १६३३) आदि की रचना सागवाड़ा में हुई मानी जाती है। भट्टारक जयविजय कृत शकुन दीपिका चौपाई (वि.१६६०) तथा शुभचंद्र कृत चंदनाचरित का निर्माण डूंगरपुर में हुआ पाया जाता है। भट्टारक रामचंद्र ने सुभौमचक्रिचरित्र की रचना (वि.१६८३) सागवाड़ा में बैठकर की थी। इस प्रकार जैन साहित्य की रचना वागड़ में १५ वी. शती विक्रमी से हई मिलती है। संस्कृत भाषा में प्रशस्तियाँ तथा शिलालेख तो वि. सं. १०३० से ही मिलते हैं । वि. सं. १७८४ में योगीराज मावजी का वागड के साबला गांव में प्राविर्भाव महत्व की बात है। सं.१८१४ में अपनी देहलीला समाप्त करने तक इस महापुरुष ने ४ चौपड़े (महाग्रंथ) तथा अन्य लघुग्रन्थ वाणी लिखित रूप में वागड़ को प्रदान कर अनुग्रहीत किया है। आज वागड़ में भजन तथा संतवाणी प्रचुर रूप में प्रचलित है। मावजी के बाद वागड़ में डुगरपुर में गवरीबाई (वि. १८१५ से वि. १८६५) का उद्भव भी साहित्य दाता के रूप में अविस्मरणीय है। इस भक्त कवियत्री ने अपने आराध्य की भक्ति के अनेक पद इसी मिश्र वागड़ी बोली में दिये हैं। गुजरात की वर्नाक्युलर सोसायटी की ओर से कुछ पदों का प्रकाशन भी हुमा सुना जाता है। वागड़ की इस मीरां की प्रेमलक्षणा भक्ति के पदलालित्य का पठन आज भी वागड़ में सुनाई देता है। इन भक्तों की श्रेणी में 'अबोभगत' ।वि.१८७७-१८३८) भी बागड़ में अमर हो गया है। यह वीर भक्त अभेसिंह काफी संख्या में पद दे गया है। इनका प्रकाशन नहीं हुआ है, परंतु हस्तलिखित रूप में अवश्य प्राप्य हैं। इस साहित्य परंपरा में प्रति समृद्ध ऐसा लोक साहित्य ही प्राज वागड़ की सच्ची निधि है। वागड़ के वीर 'गलालेंग' (वि. सं. १७३०-१७५१) की वीरगाथा आज भी लोकमानस में अमर है । लगभग पौने तीन सौ वर्षों से यह ऐतिहासिक वीर काव्य जोगियों द्वारा परंपरागत मौखिक रूप से गाया चला पाता है। मेवाड़, मालवा व वागड़ के गांवों में इसको सूनने का चाव किसी में न हो ऐसा नहीं। वीर, शृंगार और करुण रस की त्रिवेणी में अवगाहन कर अपूर्व आनंद की अनुभूति होती है। आज की भाषा में कहूँ तो यह गाथा भी एक अमर शहीद की अपूर्व कहानी है जो इतिहास की कड़ी होने पर भी लुप्त है। वीर विनोद में कुछ विवरण है, परंतु वह पर्याप्त नहीं है। 'अर्जण सौमण' (अर्जुन चौहान) नामक वीर के पराक्रम की भी पद्यकथा लोकश्रु त है। इसी कोटि का एक और काव्य 'हामलदा' (सामंतसिंह) भी मौखिक रूप में वागड़ में व्याप्त है। वीर रस से भरपूर यह गान भी 'अर्जरण सौमण' और 'गलालेंग' की तरह ही श्रोता के रोंगटे खड़े कर देने वाला शौर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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