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बागड़ के लोक साहित्य की एक झांखी
हमारे देश में तीन बागड़ प्रदेश सुने जाते हैं—पहला गुजरात प्रदेश में कच्छ-गुजरात की सरहदों के बीचका, दूसरा राजस्थान में नरभड़ (नरहड़) आदि पिलानी से हांसी-हिंसार तक का, और तीसरा मेवाड-मालवा-गजरात की सरहदों के बीच का प्रदेश। हमारा बागड़ यह तीसरा प्रदेश है जो दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के डूंगरपुर और बांसवाड़ा के जिलों तथा उनके आसपास के विस्तार का क्षेत्र है। यह विभाग २३० १५' से २४० १' उत्तर अक्षांस एवम् ७३० १५' से ७४० २४' पूर्व देशांतर के बीच स्थित है। इसका क्षेत्रफल करीब ५,००० वर्गमील तथा इसकी आबादी लगभग १२ लाख की है। इस क्षेत्र की मूल प्रजा प्रादिवासी भील जाति है। पालों में रहने वाले भीलों वा मेंणों की बोली 'भीली' है, कटारा विभाग की बोली पलवाड़ी है और शेष समग्र बागड़ की भाषा बागड़ी बोली है। बागड़ी मुख्य बोली है । भीली, पलवाड़ी तथा कटारी बोलियाँ सिर्फ भील क्षेत्रों तक ही सीमित है।
महीसागर इस प्रदेश को डुगरपुर और बाँसवाड़ा के दो मुख्य भागों में विभाजित करती बहती हुई गुजरात में खंभात की खाड़ी में जा गिरती है। समग्र प्रदेश पठारभूमि (Forested upland) है। भील, ब्राह्मण, पटेल (गुजराती तथा बागड़िया), राजपूत, बनिये तथा अन्य लगभग सभी वर्गों की पंचरंगी प्रजा का इसमें निवास है। मेवाड़, मालवा तथा गुजरात, तीनों प्रदेशों से प्रजा का आवागमन तथा संबंध होने से भाषा का स्वरूप तथा लोक साहित्य का रूप भी मिश्रित है।
बागड़ क्षेत्र में लिखित साहित्य नहींवत् है । इस प्रकार में कुछ शिलालेख, पट्टावलियाँ वंशावलियां व प्रशस्तियाँ, ताम्रपत्र तथा नामा-बहियाँ ही गिनाये जा सकते हैं। परंतु इस विशाल भूभाग का लोक साहित्य प्रति समृद्ध है। आज तक यह अप्रकाशित एवम् मौखिक रूप से ही प्रचलित है । इसमें (१) ऐतिहासिक वीर काव्य (Historical Ballads), (२) लोकगीत (३) भजन (४) पारसियाँ या पहेलियाँ (Riddles) (५) लोकोक्तियां एवं मुहावरे, (६) लघुकथाए (७) भविष्यवाणियां तथा (८) धार्मिक वार्ताएं आदि मुख्य हैं।
बागड़ का समग्र उपलब्ध लोक साहित्य प्राज बागड़ी बोली में है। यह बोली शौरसेनी से उत्पन्न मानी जाती है। शौरसेनी उत्तर की तरफ से धीरे २ धीरे ब्रजभाषा में परिणित हुई तथा दक्षिण में बढ़कर वह पुरानी-पश्चिमी राजस्थानी और उसमें से मारवाड़ी एवं गुजराती बनती हुई उसी की एक शाखा 'बागड़ी' बन गयी। इस बोलो का स्वरूप मुख्यतः गुजराती से तथा मालबी, मेवाड़ी, भीली आदि के मिश्रण से बना है। इसमें ब्रज, अवधी, मारवाड़ी, खड़ी बोली आदि के शब्दों का भी समावेश है। इस खिचड़ी भाषा का
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रूप योगीराज मावजी महाराज के चौपड़ों में स्पष्ट दृष्टव्य है। वागड़ी में साहित्य रचना काफी प्राचीन काल से ही हुई दिखाई देती है। महाकवि माघ ने शिशुपाल वध की रचना वागड़ में की थी, ऐसी एक किंवदन्ति मज़ाक के रूप में गुजरात प्रांतीय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री कुशलगढ़ निवासी श्री जेठालालजी जोशी ने मुझसे कही थी। चारण साहित्य पुरानी डिंगल-पिंगल की शैलियों में प्राप्य है। जैन साहित्य की रचना भी वागड़ में ठीक प्रमाण में हुई मानी जाती है। भट्टारक ज्ञानभूषण की तत्वज्ञान तरंगिणी (वि. १५६०), भट्टारक शुभचंद्र के पांडवपुराण की (वि. १६०८), भट्टारक गुणचंद्र द्वारा अनंतजिनव्रतपूजा (वि. १६३३) आदि की रचना सागवाड़ा में हुई मानी जाती है। भट्टारक जयविजय कृत शकुन दीपिका चौपाई (वि.१६६०) तथा शुभचंद्र कृत चंदनाचरित का निर्माण डूंगरपुर में हुआ पाया जाता है। भट्टारक रामचंद्र ने सुभौमचक्रिचरित्र की रचना (वि.१६८३) सागवाड़ा में बैठकर की थी। इस प्रकार जैन साहित्य की रचना वागड़ में १५ वी. शती विक्रमी से हई मिलती है। संस्कृत भाषा में प्रशस्तियाँ तथा शिलालेख तो वि. सं. १०३० से ही मिलते हैं ।
वि. सं. १७८४ में योगीराज मावजी का वागड के साबला गांव में प्राविर्भाव महत्व की बात है। सं.१८१४ में अपनी देहलीला समाप्त करने तक इस महापुरुष ने ४ चौपड़े (महाग्रंथ) तथा अन्य लघुग्रन्थ वाणी लिखित रूप में वागड़ को प्रदान कर अनुग्रहीत किया है। आज वागड़ में भजन तथा संतवाणी प्रचुर रूप में प्रचलित है।
मावजी के बाद वागड़ में डुगरपुर में गवरीबाई (वि. १८१५ से वि. १८६५) का उद्भव भी साहित्य दाता के रूप में अविस्मरणीय है। इस भक्त कवियत्री ने अपने आराध्य की भक्ति के अनेक पद इसी मिश्र वागड़ी बोली में दिये हैं। गुजरात की वर्नाक्युलर सोसायटी की ओर से कुछ पदों का प्रकाशन भी हुमा सुना जाता है। वागड़ की इस मीरां की प्रेमलक्षणा भक्ति के पदलालित्य का पठन आज भी वागड़ में सुनाई देता है।
इन भक्तों की श्रेणी में 'अबोभगत' ।वि.१८७७-१८३८) भी बागड़ में अमर हो गया है। यह वीर भक्त अभेसिंह काफी संख्या में पद दे गया है। इनका प्रकाशन नहीं हुआ है, परंतु हस्तलिखित रूप में अवश्य प्राप्य हैं।
इस साहित्य परंपरा में प्रति समृद्ध ऐसा लोक साहित्य ही प्राज वागड़ की सच्ची निधि है। वागड़ के वीर 'गलालेंग' (वि. सं. १७३०-१७५१) की वीरगाथा आज भी लोकमानस में अमर है । लगभग पौने तीन सौ वर्षों से यह ऐतिहासिक वीर काव्य जोगियों द्वारा परंपरागत मौखिक रूप से गाया चला पाता है। मेवाड़, मालवा व वागड़ के गांवों में इसको सूनने का चाव किसी में न हो ऐसा नहीं। वीर, शृंगार और करुण रस की त्रिवेणी में अवगाहन कर अपूर्व आनंद की अनुभूति होती है। आज की भाषा में कहूँ तो यह गाथा भी एक अमर शहीद की अपूर्व कहानी है जो इतिहास की कड़ी होने पर भी लुप्त है। वीर विनोद में कुछ विवरण है, परंतु वह पर्याप्त नहीं है।
'अर्जण सौमण' (अर्जुन चौहान) नामक वीर के पराक्रम की भी पद्यकथा लोकश्रु त है। इसी कोटि का एक और काव्य 'हामलदा' (सामंतसिंह) भी मौखिक रूप में वागड़ में व्याप्त है। वीर रस से भरपूर यह गान भी 'अर्जरण सौमण' और 'गलालेंग' की तरह ही श्रोता के रोंगटे खड़े कर देने वाला शौर्य
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वागड़ के लोक साहित्य की एक झाँखी
और ओजस्वी वाणी का अनुपम उदाहरण है । बाँसवाड़ा के अन्तर्गत आज का तलवाड़ा गाँव प्राचीन काल में 'तलकपुर पाटण' नाम से विख्यात नगर था। यह चौहान वंश की राजधानी वर्तमान अधूणा नगर, शेष गाँव आदि से संलग्न विराट बस्ती थी। यहाँ राजा 'हामलदा' उर्फ सामंतसिंह का शासन था। हामलदा शूरवीर क्षत्रिय था। इसी से संबंधित शौर्य गाथा आज भी मौखिक रूप से वागड़ में गाई सुनी जाती है।।
_ 'गोविन्दगुरु' नामक एक संत तो पिछली शती में ही हुए माने जाते हैं। इन्होंने वागड़ के आदिवासी भीलों को भक्त बनाया और उन्हें हर प्रकार से सुधारने का महान् सामाजिक कार्य किया। उनसे संबंधित गीत व भजन भी आज वागड़ में और खासकर आदिवासी भीलों में काफी लोकप्रिय हैं।
'कलोजी' नामक एक वीर क्षत्रिय की वाणी भी गायी जाती है। लोक कथा भी व्यापक है। मैंने इसको अंकित भी किया है । 'बलतों वेलणियों' नामक एक वीर क्षत्रिय लड़ता हुअा वीरगति को प्राप्त हुआ। उसकी भी वीर-करुण रस की काव्य-कथा सुश्रुत है ।
रामदेवजी तथा भाटी हिरजी के भजन भी लोक साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।
योगीराज मावजी के अतिरिक्त उनके शिष्य-भक्त जीवण, सुरानद, जनपुरुष, दासजेता, दासमकन उदयानंद तथा नित्यानंद महाराज आदि के भजन व प्रारतियां भी माव संप्रदाय में व्यापक व लोकों में प्रिय हैं।
गोरख, मोरा, चंद्रसखी, हरवण कावेड़ियो (श्रवणकुमार), गोपीचंद-भरतरी आदि के भजन भी अति व्यापक हैं । तोल राणी का भजन स्त्रियों को बहुत प्रिय है ।
___ मकोनी वात, विजु (बिजली) नी वात एवं अन्य लघु कथाएं तथा चंदन मलयागिरी की वार्ता, शीतला सप्तमी की वार्ता तथा अन्य धार्मिक एवं व्रतादि संबंधी वार्ताएं भी बहु प्रचलित हैं। इन्होंने भडली-वाणी तथा भविष्यवाणियाँ भी हैं।
यह सब लोक-संबंधी है और लोक साहित्य का भागस्वरूप है। परंतु आज तक इस समग्र सामग्री का संग्रह, संपादन तथा प्रकाशन नहीं हुआ है । यह साहित्य निधि मौखिक होने से घट-बढ़ भी होती रहती है। मैंने अपना शोध कार्य करते हुए काफी संचय यथा संभव किया है । दैवयोग होगा तो कुछ प्रकाशन भी होगा परन्तु कुछ झांखी सादर प्रस्तुत करता हूँ।
(१) "गलालेंग" वागड़ की यह ऐतिहासिक वीर-गाथा अप्रकाशित है। परन्तु लगभग २७५ वर्षों से यह प्रेम और शौर्य का अनुपम उदाहरण रूप लोक-जीवन में व्याप्त है । मेवाड़ के वृहत् इतिहास वीर विनोद में इसका अल्प उल्लेख हुआ है परंतु प्राप्य मूल कथा के आधार पर अपने शोध कार्य में मुझे इसकी कड़ियां प्राप्त हुई हैं । काव्यारम्भ यों होता है
"लालसेंग ना सवा गला लेंग तारु, धरति मोगु नामे जिय।
पुरबिया पुरबगड़ ना राजा तमें प्रांसलगड़ ना राणाए जियः" गलालेंग पूर्विया राजपूत लालसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था । वह पूर्वगढ या प्राँसलगढ़ का राजा था। इतिहास में उस समय मेवाड़ में महाराणा जयसिंह का तथा डूंगरपुर में महारावल रामसिंह का शासनकाल था। इतिहासकार के अनुसार ढेबर की नींव वि० सं० १७४४ में तथा उसकी प्रतिष्ठा १७४८ में
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हुई थी। ढेबर के कार्य में गलालेंग का मुख्य हाथ रहा होने से और कडारणा के आक्रमण में वीरगति को प्राप्त होने के दरमियान साजँ साँदरवाडँ की दो राजकुमारियों से शादी करने आदि अनेक प्रसंगों के प्राधार पर गलालसिंह की आयु ( वि० १७३० - १७५१ ) निश्चित की है और डूंगरपुर के महारावल लक्ष्मणसिंह जी ने इसका समर्थन भी किया है । २१ साल की भरी जवानी की आयु में खेत रहने वाले इस गलालसिंह की संक्षिप्त परंतु शौर्यभरी कथा रोमांटिक तथा प्रति करुण है ।
"भाइयँ - भाइयँ नो वकरो लागो ने सोड़या पूरब देते जियें "
आपसी बंटवारे को लेकर कुटुम्ब में कलह और परिणामस्वरूप कुहराम मचा | मातृभक्त गलालेंग ने माँ से पूछा- 'मां जणेता श्रोकम करो मुळे भाइयँ नो गालु धारणए जियॅ । पिता लालसिंह का स्वर्गवास हो चुका था। विधवा माँ की आज्ञा पर गलालसिंह चलता था । माँ ने अन्यत्र जाकर अजीविका प्राप्त कर पुरुषार्थ और पराक्रम आजमाने की आज्ञा दी। फलतः अनुज गुमानसिंह तथा चचेरे भाई वखतसिंह व कुछ सेवकों सहित पूरब देश छोड़ कर गलालेंग चित्तौड़ आ पहुचा ।
"ॐटे उसाला गाड़े तंबुड़ा कैंप राणियँ नि सकवाले जियँ पुरवा थका खड़या गलालेंग कँच बाँका सितोड़ माते जियें ।"
उस समय महाराणा का मुकाम उदयपुर था अतः उछाला लिये हुए वह उदयपुर आया । उसके तेज व रौब को देखकर राणा ने उसे २५ हजार का पट्टा देकर रख लिया और खंराड़ में मैड़ी बनाकर रहने की सलाह दी ।
खैराड़ के इलाके में पानी की कमी थी। एक बार सूअर की गौठ खाते वक्त गलालसिंह ने राणा से इसका जिक्र किया और मेवल का नाका बाँधने की प्राज्ञा प्राप्त करली । तलवाड़ा के सलाट बुलाये गये, मालवा से औढ़ लाये गये और लोहारिया के लोहे व बरोडा खान के पत्थरों से ढेबर पक्का बंधवाया गया । तीन दिन का काम बाकी था कि गलालेंग ने प्रौड़ों से डेराडीट एक मेवाड़ी रुपया सरकारी तंबु रफू कराने वसूल करना चाहा । इस पर झगड़ा हुआ
रितु भालु कुवोर गलालेंग श्रौड नो गाल्यो धारणं जियँ'
कुछ प्रोड़ भाग निकले और महाराणा जयसिंह को हकीकत कही। जयसमुद्र की यह घटना कलंकरूप थी अतः राणा ने गलालेंग को मेवाड़ की सरहद छोड़कर चले जाने का फर्मान किया । स्वाभिमानी गलालेंग ने पुनः उछाला भरा और सलु बर, जैताना होता हुआ वह सोम नदी पर आ गया । सलुम्बर में उस समय रावजी भैरुसिंह जी का शासन था - उन्होंने गलाल को रोकना चाहा पर वह नहीं माना । सोमनदी का पानी जयसमुद्र के अटे से आता है। इस काले पानी को देखकर वह कहता है
'कालें कालेँ निर नदिने भाइ केयँ थकं श्रायें जियँ' वक्ता उत्तर देता है- 'राज नं बंदाव्यँ ढेबरियं दादा एयँ थकं श्रावें जियँ'
इस पानी को पीना हराम करके डूंगरपुर की सरहद में नये बीड़े खोद कर मुंह में पानी डाला पौर आसपुर की धोली वाव पर आकर पड़ाव डाला । गलालेंग को आत्म विश्वास था कि
" श्रापड़ी तरवारे तेज प्रोवें तो श्रापे ब्रमरणा पटा करें जिसँ"
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और फिर माँ की सलाह से डूंगरपुर की ओर प्रस्थान किया। महारावल रामसिंह गलालेंग की बहन जी के पति होने से उसके सगे जीजाजी होते थे। रावल ने भी गलालेंग का स्वागत किया और ५० हजार की जागीर दे कर उपकृत किया और कहा
सगवाड़े राज थारण राको ने गलिया कोट सौकि करो जिये
पसलावे तमें मेडि माँडो ने मजूर नि रोटि जमो जिय" पचलासा में जीवा पटेल की जमीन छीन कर गलालसिंह ने अपना महल बनाया अत: जीवा पटेल उछाला भर कर कुवा के जागीरदार के पास जा बसा | कुवा के हतुमहाराज ने लालजी पंड्योर का पट्टा लेकर जीवा पटेल को दिया अतः लालजी पंड़योर उछाला भर कर डूगरपुर राज्य की सीमा छोड़कर कडाणा के ठाकुर कालु कडेणिया की शरण गया परंतु कालु से शतं ली कि वह कुवा पर आक्रमण करके उसके प्रति किये गये अन्याय का बदला लेगा। कडाणिया कालु ने यह मंजूर किया और जब दशहरे की सवारी में कूवा के ठाकूर हतमहाराज डंगरपुर राणा की नौकरी में गये हुए थे तो कडाणिया ने कुवा पर आक्रमण किया और मनिया डामोर तथा खेमजी खाँट आदि चौकीदारों को मारकर सारा ग्राम लूट लिया तथा बस्ती उजाड़ दी। यह समाचार डुगरपुर के दरबार में पहुँचाया गया तो गलालेंग यह सुनकर
आगबबूला हो उठा और आक्रमण के लिए बेसब्र बन गया परंतु एक माह बाद सब सरदार सेना एकत्रित कर युद्ध को प्रस्थान करें, ऐसा निश्चय हा । गलालसेंग पछलासा आया तो उसे
। "साज ने साँदरवाडॅ गामन बे जोड में नारेल माल्य जिय'
राणि झालि ने राणि मेंगतरण पणवाने नारेल प्राव्यं जियें," माँ पियोली के मना करने पर भी गलालसिंह ने श्रीफल स्वीकार किये। माँ ने कहा
'गाम कडेंग जिति प्रावो ने बलता साजे परणो जियें' गलालेंग कहता है
'गाम कडॅणे काम प्रावं तो कोण हतिये बले जिय' । नारियल स्वीकार कर वह वनदेवी रावल रामेंग की मंजूरी लेने डूंगरपुर गया। रावल रामसिंह ने कहा
। “नोव दाउं नि सुटि हालात में दसमें मेले प्रावो जिय
इसमो सुकि इयारमो थावे तमे देसवटे जाजु जिय" अरमान भरा गलालेंग शूरवीर और पराक्रमी था, क्रोधी था, स्वाभिमानी था परंतु दिल से सरल, उदार, कर्तव्य परायण और प्रेमी तबियत का आदमी था । उसकी पहली पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था--
"पेला फेरा ना परण्या गलालेंग ने देवदे सोड्या मोडे जियं,
देवदा वाले देवलोक में प्रवे साजे परणवा जावें जिय" . अत: यह दूसरी बार बरात सजाई थी। लीलाधर घोड़े पर सवार होकर वह शादी को चला। मां ने उसे अनेकानेक श्राप और गालियाँ दी !
साजं सांदरवाउँ ग्राम में जब बरात पाई तो गलालेंग के रूप पर लोग प्राफिन हो गये। दोनों कुमारियाँ तो धन्य धन्य अनुभव करने लगीं। कामदेवता के समान स्वरूपवान गलालेंग की शादी और
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उसके फौरन बाद कडाणा युद्ध की कल्पना से लोक भय और आशंका अनुभव करने लगे। लग्न विधि चल रही थी कि गलालेंग को कडाणा याद आया । अवधि में सिर्फ एक दिन बाकी था। उसने राजपुरोहित को जल्दी करने को कहा तो उसकी सासू पर्दे में से बोली
"धिरे-धिरे परगो मेवाड़ा नानि ना बालया पाते जियें कुवारी कन्या ने वोर घणा परणी ने लगाइयो दागे जिय लगन लगन तो मरद कुंवारो असतरि तो पागलो भोवे जियें धिरे-धिरे परणो मेवाडा के घणी परण्या नी अाँसे जियें
एवि उतेवेल पोत तो वाला तमें वलता परणी जाता जियें" गोर वजेराम ने ज्यों त्यों लग्न विधि पूर्ण की तो दान दक्षिणा देकर गलालसिंह सीधा युद्ध में जाने को तैयार हुआ । गोर ने कहा कि कालयोग है अतः घर जाकर वरपडवें (दोरा कंकन छोड़कर) करके जायो। रातोंरात बारात पचलास रवाना हुई । सबलसेंग काका की मेडी में रात वास किया परन्तु पत्नीयों से मिलना नहीं हया क्योंकि मोडमींढल छोड़े बिना सुहागरात वजित थी। दूसरे दिन गोर से मुहर्त मांग साल की माँ पियोली गलालेंग को रानियों से मिलने देना नहीं चाहती थी क्योंकि रसिक गलाल रानी के रूप पर मोहित हो जाय तो युद्ध में ही नहीं जाय । अतः माँ ने ब्राह्मण को धमकाकर दस दिन बाद मुहूर्त है, ऐसा खोटा कहलवाया। परिणामस्वरूप गलालेंग बिना मोड़-मीढल छोड़े ही युद्ध को रवाना हुआ। यहां से करुण-रस का उभार पाता है। पहली रानी असमय में स्वर्ग सिधारी और अब दो दो नारियाँ हैं, परन्तु प्रणय सुख पाये बिना ही गलालेंग को युद्ध में जाना पड़ता है ! पादरडी बड़ी में मावा पटेल की पत्नी ने दूर से गलाल को आते देखा तो गांव सहित स्वागत को बढ़ी और उसे चावलों से पौंखकर स्वागत कर चौराहे पर ठहराया। मावा पटेल की षोड़शी पुत्री रूपा ने गलालेंग को कहा
"प्राडें लोक नि होलि दिवली खतरिने पुनेम वालि जियें बार कोनो खडयो खतरि पुनेमियो धेरे प्रावे जिय माजे है वैसाकि पुनेम मामियँ ने मलि प्रावो जिये
प्रस्तरिय ना नया पड़े तो मामा धरणें परासन लागें जियें" हे मामा, आज पूनम है । मामियों को मिलकर जाओ, नहीं तो मेरी कसम है। भाणेज पटलाणी की बात मान, सेना सागवाड़ा पड़ाव की ओर भेजकर गलालेग माई वखतसिंह के साथ वापस पछलासा लौटा। रात हो चुकी थी। राणी झालि तो सो गई थी परन्तु मेंणतणि ने घोड़ों की टापें सुनी। उसने झालि को जगाकर कहा
'उट ने मारी बोन रे झालि ठकरालो घेरे पाव्यां जिये
मेला खेला तो खेर वया ने मांरिणधर पासा पाव्या जियें।' माणिगर की बात सुनकर झालि उठ बैठी और पिया मिलन की उमंग में शृङ्गार सजा कर तैयार हुई :
"पान फूल नि सेज वसावि ने प्रोशि के नागर वेले जिय तेर दिवा तेलना पुर्या ने दस घिय ना पुर्या जियें।"
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परंतु शृङ्गार रस के गीत सुनकर माता पियोली जाग उठी और द्वार पर प्राकर गलाल को खरी खोटी सुनाई
___ 'तारे बाप नु बिण लजव्यु मां जणनारी नु थाने जिय" मां के व्यंग्य बाणों से आहत गलालेंग अधूरे अरमान लेकर रण-भूमि में जाने की तैयारी करने लगा। दोनो रानियों ने अपने देवर वखतसिंह को कहा
'पियोर में तो मां नो जायो ने हारि में हाउ नो जायो जिय
जालि मेल नं ताले खोलो, परण्यानु दरसण करें जिय' वक्ता ने दोनों रानियों को बाहर निकाला। दोनों नवोढाए लाज शर्म छोड़कर गलालेंग के आगे आकर खड़ी हई ओर बोली
"घडि पलक भेगा ने रम्या परणि ने लगाव्यो दागे जिय
मनमें दगा मता परण्या तमें वलता परणि लेता जिय" तब गलालेग कहता है
होल. वरनि होलेंगणिरे तु कय ललसावे जिवे जियें
गाम कडंणे काम प्रावता तो कोण हतिये बलतु जिय' तब रानियाँ कहती हैं
"जो बावसि भले पदारो तमें जिव नं जतन करो जिय
पार्क काम करणे करजू गमेलिये हत्ती बलं जिय" रानियों को विलाप करते छोड़कर गलालसिंह लीलाधर पर सवार होकर युद्ध को रवाना हो गया ! सागवाड़ा के नगर सेठ की पत्नी ने मोड़-मीढल युक्त गलालेंग को रण-चढने जाते देखकर उसे रोका और स्वागत करके भाई कहकर उसे सागवाड़ा रहने और रावल रामसेंग को दंड भर देने की इच्छा व्यक्त की
"मां ना जण्या भाइ गलालेंग सगवाड़े बेटा रेवो जियें
प्रजुर धरिण जे डण्ड करें मों घोरना भरुडण्डे जिय" पादरडी की पटलाणी और सागवाड़ा की सेठानी की सहानुभूति और स्नेह का कायल गलालसिंह कहता है
नके बोनबा वसन खरसो मों ने ठेयी ने जोगे जिये
खतरिये ना दावड़ा प्रमें उसिन लाव्या मोते जिय" वह कहता है कि रावलजी सुनेंगे तो कहेंगे
मरवा भागो बिनो गलालेग वारिणयण ने हण्णे पेटो जियें वह आगे बढता है परंतु पगपग पर अपशुकन होते हैं । सामने विधवा स्त्री मिलती है तब भावी की आशंका मन में उभरती है। फिर भी धीर, वीर, गंभीर और दिलेर जवाँमर्द शौर्य की खुमारी से कहता है
'खतरिय ना दावड़ा भाइ मापे औंदा हकन वाद जियें' खतरिय रांगडेंना वावड़ा भाइ भाले भरवं पेटे जियें"
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और करगसिया तालाब की पाल पर राजा की फौज में शामिल हो गया। इस वक्त गलालग का तोहफा देखकर सेना के सब क्षत्रिय काँप उठे और राजा के कान भरने लगे। फलतः राजा ने गलाल का मुजरा नहीं झेला और व्यंग्य कहा
मों जाणु ते पणवा ग्योतो के तु घोरजमाइ रयो जियें' ___ गलाल को बुरा लगा, उसने कहा एक दिन मैं पीछे रहा, तुम्हारे कितने आदमी काम आये ? और उसने सवा कोस आगे जाकर अपना डेरा डाला। इधर महारावल की फौज में षड़यंत्र हरा और आधी रात को कूव का डंका बजा दिया। गलालेंग ने यह नगारा सुना तो वह उठ बैठा और वक्ता को कहा कि फौज पावे उसके पहले ही हम कडाणा पर टूट पड़े और अपना जौहर जीजाजी को बता देवें । फलतः आधी रात को गलालसिंह अपने मरणियां साथियों सहित चल पड़ा और महीसागर पर पहुंच गया। बाद में पता लगा कि कुछ धोखा हुआ है परंतु गलालंग कहता है
'सड़यो खतरि पासो फरे तो जरणनारनु लाजे थानए जिय' नदी में रात्रि के अंधकार में पानी भरने की आवाज आई, देखा तो सात कन्याएं थीं। घेरा डाल कर उन्हें पकड़ लिया। पूछा तो पता लगा कि, गलालेंग के भय से कडाणा वाले रात को पानी भर लेते थे। उन कुमारियों से पता लगा कि वागड़ का लूटा हुआ सारा धन बावों के मठ में छिपा रक्खा है। गलालेंग के इशारे से वखतसिंह ने सातों को मौत के घाट उतार कर कालिया दर्रे में फेंक दिया। उन्हें जीता छोडते तो हांक मच जाती। नदी में अंतिम बार अफीम के कसूबे पीकर बावों के मठ पर धावा बोल दिया तथा प्रामगर तथा धामगर बावों को मारकर धन निकलवाया। सात ऊंट भर कर एक बहन जि को डुगरपुर, दूसरा ऊट सागवाड़ा बहन सेठानी को, तीसरा ऊँट पादरडी बहन पटलानी को, चौथा ऊँट जीजाजी रावल रामसिंह को तथा शेष तीन ऊँट पछलासा दोनों पत्नियों, भाई गुमना तथा माँ पियोली के लिये भिजवाये और कहलवाया
"माजि साप ने मजरो के जु तारो बेटो करणे सड़या जियें राणिझालि ने एटलं केजु गमेले सतिये थाजु जियें
भाइ घुमना ने मजरो केजु माडिना करणे सड़या जिय" बावों का मठ तोड़ कर और वागड़ का लूटा हुआ धन वागड़ भेज कर गलालसिंह मौत के उन्माद में आवेश में आगया और पूरे जोर शोर से कडारणा पर हमला बोल दिया। घमासान युद्ध हमा
"जड़ा जिड़ बन्दुके सुटे भाल रा घमोड़ा उडे जिय कटारिय ना कटका या तरुवार ना टसका लागें जियें सामा सामि खतरि लडें कय गुजर झगड़ा लागा जिय रिन झाल वोरे गलालेग वैरि ना गाले धारगए जिय.
दारु गोले ना में वर ने खतरि ना मसाला लागें जियें" . कालू कडॅणिया और उसका पुत्र अनूपसिंह डर कर महल में जा छिपे । परंतु अब गलाल रुकने वाला नहीं था। वह मौत का प्रच्छन्न स्वरूप बना हुमा यमराज की तरह टूट पड़ा और सारा कडारणा भस्मीभूत कर डाला। चौराहे पर नगारा बजाने वाला जोदिया तथा ड्योढी पर वखतसिंह भी २१ घाव
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"वागड़ के लोक साहित्य की एक झाँखी"
खाकर वीरगति को प्राप्त हुआ। अब गलाल और उसका घोड़ा लीलाधर पूरी खुमारी से झूम रहे थे ! कडाणा के महल के चारों ओर भारी कोट था । प्रवेश का कोई मार्ग न देखकर गलाल घोड़े को पूरे जोश से दौड़ा कर कूदा महल के अंदर चौक में कच्चे मौती बिखेरे हुए थे अतः लीलाधर घोड़े का पाँव चटक गया और वह लँगड़ा हो गया। दुश्मन घोड़े को बादमें पीड़ा पहुँचाएगा यह सोचकर घोड़े का सिर धड़ से अलग करके गलाल कडारणा की रा-प्रांगन में खड़ा घूमने लगा। उस पर मौत मँडरा रही थी। बह बीरता के नशे में चूर था। वहाँ केलें थी उन्हें काटने लगा। उसका जनून देखकर कडाणिया की रानी ने कालू को व्यंग्य मारा कि वैरी बाहर आ गया है और तुम घर में छिपे बैठे हो। व्यगोक्ति से चोट खाकर कालू ने गोली दाग दी और गलालेग घायल हो गया। वह मौत की प्रतीक्षा करता हुअा राम का नाम जपने लगा। इतने में कालू की कुमारी सुन्दरी फुलं बाहर आई। वह गलालेंग के रूप पर मोहित हो गई। पानी के दो लोटे रखकर वह गलालेंग का हाथ पकड़कर मंगल फेरे फिरने लगी तब गलाल कहता है
"घड़ि पलक ना पामरणा रे तार खोलिय प्रबड़ा व्यु जिये कुवारि कन्या ने वोर गरणा पण्णि ने लगाइयो दागे जिय" तब फूल कहती है
'नति दिक्य घोर ने बारें मों रूप ने फेरा फरिजिय' इतने में कालू और अनूप बाहर पाये और गलालेंग के शरीर पर के अलंकार-गहने लूटने लगे, तब गलाल को चेतन पाया और उसने कहा
'प्राव्यो कडरिणया तारे पागे पण मरद ने पोगे जावे जिय' कडाणिया तलवार उठाता है परंतु उसका वार होते ही गलाल जोर का झटका मार कर पिता पुत्र दोनों को एक साथ मौत के घाट उतार देता है। गलाल की अनुपम वीरता शक्ति से फुलं संतोष और सुख अनुभव करती हुई कहती है
"भोवोभोव मने भरतार मलो तो बाप लालेंग नो जायो जिय
जिव तमारो गेते जाजु मा आँय सतिये बलु जियें" गलालेंग के प्राणपखेरू उड़ गये और सती की तैयारी होने लगी इतने में महारावल रामसिंह सदलबल प्रा पहुँचे परंतु अब खेल खत्म हो गया था। सारी बात फुलं के मुह से सुन लेने पर राजा रोने लगा। फुल ने कहा कि पहले गलाल की पाघ पछलासा पहुँचा दो क्योंकि वहां दो नव परिणिताएं साथ में पीछे छूट जायंगी---और फिर आप ठाकरडा पहुँचो वहाँ अमरिया जोगी है वह मेरे पति का कवित्त बना देगा, उसे लोक में चलाना । यह कहकर फुलं सती हो गई। उधर रानी झाली और रानी मेंणतरिण भी पछलासा के गमेला तालाब पर सतियाँ हो गई ! साढे तीन दिन में जोगी अमरिया ने गलालेंग की काव्यगाथा केन्द्र (एकतारा) पर गाकर गूथ दी। राजा ने जोगी को जमीन आदि देकर पुरस्कृत किया और . स्वयं डूगरपुर लौट गये । इस प्रकार वीर गलालेंग की गाथा पूर्ण हुई"
कटे धाव्या थान मेवाड़ा ने कटे लड़ाइयलाडे जिय कटे मेवाड़ा मोटा थया ने कटे पड़यू धड़े जियें लालसेंग ना सवा गलालग तारं जगमें अमर मामे जिये !!
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(२) "हामलदा "
वागड़ के बांसवाड़ा के अंतर्गत आज के तलवाड़ा का प्राचीन नगर तलकपुर पाटण नाम से विख्यात था । वह चौहान वंश को राजधानी था । हामलदा या सामंतसिंह वीर राजा का शासनकाल था । उस समय एक क्षत्रिय दूसरे से लड़ने पर आमादा रहता था । मेवाड़ और डूंगरपुर के बीच की सोम नदी को लेकर दोनों राज्यों में झगड़ा चल रहा था । महाराणा भारी फौज लेकर जेतारणा होते हुए सोम नदी पर आ गये और डूंगरपुर की सरहद में ग्रासपुर गाँव की धोलीवाव पर पड़ाव डाला । गोल और रामा गाँवों की वापिकाओं के रहेंट जलाकर रसोई बनाई और अत्याचार शुरू किये। यह स्थिति देखकर राम-गोल गाँव का एक श्रीगौड़ ब्राह्मण जिसकी हाल ही में शादी हुई थी वह मौड-मींढल छोड़े बिना ही भागा-भागा तलकपुर पाटण पहुँचा । उस समय समग्र वागड़ सहित मेवाड़ के छप्पन के इलाके पर सामंतसिंह का श्राधिपत्य था, मेवाड़ में (राणा) श्री दिवान के रूप में शासन चलाते थे । ब्राह्मण जाकर 'हामलदा' को हकीकत कह सुनाई । इस पर सामंतसिंह मुकाबले को आया और दोनों पक्षों में भीषण संग्राम हुआ । हजारों वीर खेत रहे और खून की नदियां बह चली । इतना खून बहा कि सवा सेर का पत्थर मी लहू की धारा में बह चला | इस ऐतिहासिक गाथा का शौर्य गीत वागड़ी बोली में व्यापक है
"एसि ने अज़ारे दल दिवण नु हो राजे जो-२ घोलिने वावे रे भंडा ज़िकिया हो राज़ जो - २ रेंटड़ा भागि ने रसोइ करि जेंगे ठामे ज़ो - २ राम ने गोल नो ग्रामण सिगेड़ो हो राज जो - २ तरत नो परण्यो ने श्राते मेंडोल हो राज़ जो-२ गले ने गोपे ने खांदे डेंगड़ि हो राज़ जो-२ श्रेणि ने तरे तो भ्रामरण सालियो हो ने दौड़तो ने धामतो आवियो तलवाड़े हो परवाले पणियारिये पाणि भरें जेंगे धिरो ने ₹ ने सिगड़ो ओसर्यो हो
राज े जो-२ राज़ जो-२
ठामें जो - २
राज जो - २
हाँबल ने सबल ने बेनि वाते मारि हो राजे जो-२
मने ने भालो ने धणि नँ दरिखान जेंगे ठामे जो - २ धिरि ने ₹ ने परिणमरि बोलि जेणे ठामें जो २ जमणो ने मेलजे माजन-वाड़ो जेंणे ठामे जो-२ ने डाबो ने मेलजे सुलाट-वाड़ो जेंगे ठामे जो-२ सोरा नि बड़िये मकनो झुले जेणे राजे जो-२ सन्मुक बेटु रे घरण नुं दरिखानु हो राजे जो-२ भुरियँ हैं मोंड ने मोसे वॉकड़ि हो राजे जो-२ अणि ने तरे ना सोमण बेटा जेंगे ठामें जो-२ ढालँ नि टेंगे जाजेम टूटे जेंगे ठामें जो - २"
प्रो० डॉ. एल. डी. जोशी
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"वागड़ के लोक साहित्य की एक झांखो"
७६ जब ब्राह्मण ने ऊपर वणित दरबार में जाकर आक्रमण की बात कही तो यह संवाद सुनकर 'हामलदा' की नवयौवना रूपमती राणी 'रेवारण' कहने लगी
"धिरे ने रैने राणि प्रोसरि जेणे ठामे हो राजे जो-२ सोम ने सोम परण्याजि सोजको जेणे हो राजे जो-२ होम में नति रे लापि-लाडुवा हो राजे जो-२ सोम में नति रे घरवाली नार जेणे ठामे हो राजे जो-२ केसर वरणि है राजनि दै जेणे राजे जो-२
मालना भसरका केम खमो जेणे ठामे हो राजे जो-२ हे मारिणगर, प्रियतम ! युद्ध में मत जाओ। आपकी केशर जैसी काया है । शत्रु का सैन्य अस्सी हजार का अपार है । असंख्य शत्रुओं के बीच आप अपने अल्प संख्यक साथियों के साथ कैसे झूझोगे ! मेरा मन मना करता है, अाप युद्ध में मत जाओ। तब राजा कहता है
हे प्रिये, तुम मुझे अपशुकन मत दो । अमंगल की बात मत कहो। तुम स्त्री जाति डरपोक होती हो। तुम्हें एक बार गर्म दूध की छांट लगी थी तो आठ दिन तक तुम शय्या से नीचे नहीं उतरी थी। परन्तु मैं क्षत्रिय बच्चा हूँ। मेरा धर्म आये हुए दुश्मन के दांत खट्टे करना या लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होना है। यों कहकर राजा ने भ्रामण को पत्र देकर राणा को कहलवाया है कि -
"सोमे ने सियारि पारिण आँगेंगे हो राजे जो, होमे ने हियारि पाणि आँगेणं हो राजे जो । सोम जो जूवे तो आवजे तलवाडे हो राजे जो-२"
अर्थात् सोम नदी दोनों राज्यों के बीच की विभाजक रेखा है। अतः समान मालिकी भले रहे परन्तु पानी पर तो सिर्फ हमारा ही अधिकार रहेगा। यदि पानी पाने का प्राग्रह हो तो तलवाड़ा राजधानी तक युद्ध लड़ते हुए आना पड़ेगा । यो समाचार भेजकर हामलदा ने युद्ध की तैयारी की और अपने सूरमा साथियों के साथ यह चौहान राजपूत अपने भम्मर-घोड़े पर बैठकर राणा से युद्ध के मैदान में जा भिड़ा और अपनी शान बान और पान को वीरता से कायम रक्खी !!
(३) "लोक गीत"
(लग्न गीत) धड़यो ने धड़ाव्यो बाज़रोट जावद जाइ जड़ाव्यो मेल्यो मोडानि पड़साले वौमोरे वदाव्यो कण माइ नं रौणि राज़ल बोलें सामि मारे सुड़िलो सिरावो कोण भाइ धेरे वर घोड़ि धड्यो ने धड़ाव्यो बाजरोट जावद जाइ जड़ाव्यो मेल्यो प्रोडानि पड़साले वौमोरे वदान्यो
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प्रो० डॉ. एल डी. जोशी
कोण भाइ नं रौरिण राजन बोलें सामि मारे सडिलो सिरावो कोण भाइ घेरे वरघोडि
x
यह लग्न गीत है । इसमें भाषा का स्वरूप और गुजराती की छाँट दृष्टव्य है। बालक लाडि तो लक्यँ कागद मोकले अोजि अलदि ना भेज्या वेला प्रावोरे !
-मालेंण गज़रो सिवदो....... (ii) प्रोजि प्रो केम प्रावु बालक लाडलि राज़ ने विरेज़िये मारग रोक्योंरे !
-मालेग्ण गज़रो सिवदो ........ इ तो अरज करों रे अंगना विरोज़ि प्रोजि गड़ि दोय मारग सोड़ो रे !
-मालेग गज़रो सिवदो ......
X
यह गीत भी ऊपर की कोटि का ही है।
(iii)
समदरिया ने अंणे पेले पारे भनोज़ि तम्बु ताणिया"." लाडि तारा बापा ने जुगाड़ नावे नकाब सें........ नति मारा बापाज़ि घर पोसे प्रापे पदारजु......." समदरिया ने अणे पेले पारे भनोजि तम्बु ताणिया लाडि तारा विरा ने ज़गाड़ नावे नकाव में ........ नति मारा विराजि घर पोसे प्रापे पदारजू...
(iv) प्रावि रे साबला नि जान रे जरमरिया जाला
धेयु रे वेवाइ तारु घोर रे , घोर धेरि ने नासेंग हाइ रे प्रावि ने कोंण भाइ ने पोगे पड़यो रे सोड़ो रे बावसि मार बाँण रे रुपिया आलु भारोभार रे मारे नति रुपियँ नँ काम रे मारे से बरिये न काम रे
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बागड़ के लोक साहित्य की एक भांखी"
(v) राइवोर तो गोयरे
राइवर ने गोवालिये वकेंण्या रे राइवोर तो रेसम केरो रेज़ो रे राइवोर तो पाटण केरु राइवोर तो समोदर नो इरो रे
फोंदु रे
(ix)
"
"
"
"3
पदार्थों रे गजगा वारिण लो
11
X
X
(vi) जमाइ सा पाग भेजु रे सवा लाकनि । २
"
"3
27
19
23
77
17
21
मांदधानि सतुराइ रे प्रोसिला जमाइ भले रे पदार्या समरत सासरे सोंगला भेजु रे सवा लाकना । २
मेल्यानि सतुराई रे सिला जमाइ मले रे पदार्या समरत सासरे टोपियो भेजु रे सवा लाकनो । २
पेर्यानि सतुराई रे श्रोसिला जुमाइ भले रे पदार्या समरत सासरे मन भेजु रे सवा लाकनि । २
परण्यानि सतुराइ रे ओ सिला जमाइ भले रे पदार्या समरत सासरे
X
X
X
(vii) लाडि लाडो माँडवे बेटं घुजे रे पोपट पानु । २ लाकड़ा ने विरोजि कुँवारा रे safe माबि बाइ कुवारि रे प्रेरण ने दोय ने परणावो रे दोयं ने जोड़ि बरण से रे
"
"
13
31
39
17
11
19
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33
11
31
.......
27
X
X
इस गीत में 'दोय' मेवाडी' तथा 'बण से' गुजराती शब्द हृष्टव्य हैं ।
(viii) सोनानु ए रेकड़ ने वायरे उडयु जाय रे...........
वाइ तमारु नाक वाड्यु जान भूकि जाय रे" सोनानु एकड़ ने वायुरे उड्य जाय वेण तमारु नाक वाड्य जान तरि जाय रे.
X
X
( बडुवा गीत )
बडुवा काने कड़ि माते घड़ि सोने जुड़ि जाइ बेटा दादाज़ ने खोले सड़ि
""
X
X
X
५१
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प्रो. डॉ. एल. डी. जोशी
बापे एण ने बाणे सलाव्यं जाइ ने सोटये कासि-गड ने सोवटे कासि-गड नो भ्रामण अम बोल्यो भड़सि से सें कारणे अाव्या बावसि अमारे बालक बड़ वो लाडनो एने कासि-गड नि जनोड अनि गणि प्रोसे बड़ वा काने कड़ि माते धड़ि सोने जड़ि जाइ बेटा विराजि ने खोले सड़ि
(भीलों के गीत ) (x) सुंदेडि तो भले रि प्रावि रे पावागड नि सुंदेडि
प्रावि उतरि रामजि भाइ ने वेड रे पावागड नि सुंदेडि करो मारा रामजि विरा मुल रे , सुदेड़ ना सवा बे रोकड़ा रे , पेरो मारां मोति बाइ बुनां रे सुदेडि पेरों तो केड़ो भराय रे , मोडे तो पगल्यां रोलाय रे , घोवु तो दरियो रंगाय रे , जजड़ तो उडे जेणा मोर रे , , ,
x
तु
किम डरके रे
(xi) मारो सांकलियालो कुपड़ो ठंकि आव, वाधज़ि
मारो धुधरियालो जॉपो सड़ि प्राव, , तु आवे तो सानो-सानो प्राव, , मारो सासरो तो मोरां ने पड़साल, " मारि सासुड़ि तो , " " , " मारो परण्यो तो गदेड़ा गोवाल, ,
( मृत्यु गीत : हरिया) (xii) दन उग्यो एम रयो घेरे प्रावो रुड़ा राजवि.........."
हरियो राजवि हाय.........हाय ........हाय......... ! तांबा कुडि जल भरि धेरे प्रावोरूड़ा राजवि........
हरियो राजवि साय......."हाय......."हाय ........ !
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' के लोक साहित्य की एक भांखी"
" वागड़
नावरण वेला वेगं घेरे प्रावो रुड़ा राजवि हरियो राजवि साय
सोना जारि जल भरि घेरे आवो रुड़ा राजवि हरियो राजवि हाय
दातु वेला वैगै घेरे प्रावो रुड़ा राजवि हरियो राजवि हाय...... भोजन परुस्य एम रयँ घेरे प्रावो रुड़ा राजवि हरियो राजवि हाय हाय जम्मा वेला वैगै घेरे श्रावो रुड़ा राजवि हरियो राजवि हाय
हाय ढाला ढोलिडा एम रया घेरे आवो रुड़ा राजवि हरियो राजवि हाय..... हाय
X
13
X
हाय
(xiii) वाड़ि मँय नो सॉप लियो कटावो रे साय केसरियो लाडलो, हाय सुगवाड़ा नो सुतारि तेड़ावो रे केसरिया ने पालकड़ि गड़ावो रे डोंगर पर नो रंगारि तेड़ावो रे पातलिया ने पालकड़ि रंगावो रे वाँसवाड़ा नो वणारि तेड़ावो रे केसरिया ने पालकड़ि बणावो रे पातलिया नि जाने सलावो रे केसरियो एरि जान में तो अमुक माइ श्रोसिला हाय केसरियो एणि जान में तो संपो भाइ एरि जान में तो अमुक भाइ मरँगा अमुक वौ नो सुड़िलो लुटॅणो रे
"1
11
लाड व नो फागणियो लुटॅणो रे
31
33
"
11
37
हाय
"
पातलियो
केसरियो
13
पातलियो
"
"
'हाय'
'हाय'
X
हाय केसरियो लाडलो'
पातलियो
केसरियो
66
X
"
19
पातलियो
23
11
"
"1
33
17
19
"
11
"
"
"
"
"
'हाय'
'हाय'
'हाय
"हाय"
हाय
(४)
भजन
रोणिजा थकि रे जाणे बाबो आवियो अरजि ने पुसे से पुसण केनो रे वाज़ से अरजि दावड़ो केनि रे सारे से बाकरिये तो वाज़ों रे गुज़र दावड़ो भाबी मारि बकरिये सरावे
!
!
X
X
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४
प्रो. डॉ. एल. डी. जोशी
गया
थोडुक २ अरजि दुद पावज़ो सादु भुक्यो आवियो सो सो मैनंनि वाकरि बाकड़ि दुद कण-बद काडो सो समरत प्रोवो तो गरु मारा काडजो दुद काडि अरोगो सो ज़ि तुबड़ि ले ने गरु मारा वराज्या तुबड़ि दुदे भरॅणि सो जि"......" ओ तो जाणों के बाबो जादु-खोरियो बाबो मल्यो हे अन्याडि...... दुदे काड्य से अरजि दावड़ा तु बड़ि में तमें खिर पकावो अगनि लागे ने तुबड़ि बलि जावे दुद रिटाइ जावे हो जि..... अगनि लगाड़ि अरजि दावड़े तुबे खिर पकावि सो ज़ि"......" पोतो जाणों के बाबो जादु-खोरियो बाबो मल्यो से अन्याडि खिर वेगावि अरजि दावड़ा खिर में साकर नकावो सो सो को माते गरु मारा सेर वसे वन में साकर क्य थकि सो धोबला भरो रे परजि रेतना खिर में साकर नकावो रेत नाकि ने गरु मारा खिर पकावि......... धोबलो भरि ने अरजि खिर पियो थोड़ि अमने पो हो ज़ि......... खिर खावि ने अरज़ि केवु बोल्या खिर में साकर गोलॅणि
ओ तो जाणों ते बाबो जादु खोरियो बाबो मल्यो से अन्याडि खिर खादि हों अरज़ि दावड़ा थोडु पाणि पावो हो जि......... खुवा-वावड़ि सो गरु वेगलं पाणि करणबद लावो हो जि........ तुबड़ि ले ने अरजि डोंगरि सड़ो खोरा में बगलु विय णु हो जि........" डोंगरे सड़ि ने अरजि नेसे जोयु गंगा उलटे भरणि । नेसे जोइ अरजि विसार करे ज़-टवैसाक में पाँरिण क्य थकि.........
ओ तो जाणों रे बाबो जादु-खोरियो मल्या रोणिज़ा वाला राम हो ज़ि........" जेलो एलोलो अरजि दियो तारज़ो पेला जुग में बिजो एलोलो अरजि दियो तारज़ो बिज़ा जुग में तिजो एलोलो परजि दियो तारजो तिजा जुग में सोतो एलोलो अरजि दियो तारजो सोता जुग में पाणि लावि अरजि प्रापियु दोवारिक ना नात ने पाणि पाइ ने अरजि सरणे पड़या के प्रावो आपने लारे हो जि......... काजलि वन में तारि बाकरि सो वाघ-वरु खाइ जाय हो गायँ ना गो वालि विरा तने वेदवु घड़ि बाकरिये थामो सो जि......." पासु फरि ने अरजि जोय तो राम रोंणिजे सिदायी हो ........ दोय पात जोड़ि ने अरजि बोलिया संत ने दोवारिक में वास
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"वागड़ के लोक साहित्य की एक झांखी"
(५) पारसियाँ : पहेलियाँ 'Riddles' १. प्रोसा गलानि जे कॅय पोटड़ि ने बेटि जाजेम पातरि-२
सतुर ओय तो सोड़ जु कय मुरक गोता खाय सोड़ो वेवाइ मारि पारसि...............= (बिछात पर शराब की बोतल) ओंसि गोरि पातलि जि कय नदिये नावा जाय-२ सतुर होय तो सोड़ जु ने कय मुरक गोता खाय. सोड़ो जमाइ मारि पारसि.............= (भीडी) डाक्कैण भुतनि लड़ाइ सालि जि कँय सुड़वेल सोडाववा ज़ाय-२ सतुर होय तो सोड़ी लेजु कय मुरक पड़यो जंजाल
मारि सेज़न सोड़ो वेवाइ मारि पारसि......" = (ताला-चाबी) ४. राति माटलि मारि रंगे भरि उपर जड्यो रे जड़ाव २
सतुर होय तो सोड़ी लेजु कय मुरक गोता खाय सोड़ो बेवाइ मारि पारसि......................."= (लाल मिर्च) वना माता नो बोकड़ो जि कॅय-२ पाटो पाट वेसाय मारि सेजन छोड़ो वेवाई मारि पारसि........ ..... = (नारियल) पाँस पाइयालो ढोलियो ज़ि कँय-२ ढाल यो राजदरबार मारि सेज़न
सोड़ो जमाइ मारि पारसि............. = (हाथी) ७. वना माता रो बोकड़ो ज़ि कय-२
वन सरवा ने जाय मारि सेजन सतुर होय तो सोड़जो ज़ि कय मुरक करे रे वस्यार ।
सोडो जमाइ मारि पारसि..................... = (कुल्हाड़ा) __कालो खुवो कालु पाणि ने कालि भमरज़िरि सेजलडि २
सतुर होय तो सोड़जो ज़ि केय मुरक गोता खाय सोड़ो वेवाइ मारि पारसि...... ....... = ( काजल )
(६) कहावतें और मुहावरे १. प्रजण्या नुं प्रांगणे मौत २. अण भण्या न उदार खातं ३. अण कमाउ खेति करे तो बलद मरे के बिज़ पड़े ४. दाल वगड़े अनो दाड़ो वगड़े ५. अन्याडि प्रोवे इ आड़े डाले बेइने वाढे
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प्रो. डॉ. एल. डी. जोशी
६. अमिर ने आदर सौए करे ७. अमिर ने धोड़ ने गरिब ने जोड़, ८. अलाव्या वना प्रोज ६. अलो ड्यु तो वाघ-ए में खाय १०. अंदा रवै ने कुत्ता पिये ११. प्राइ एवि दिकरि ने धड़ो एवि ठिकरि १२. प्राइ जोवे प्रावतो ने वो जोवे लावतो १३. ऑगणे खुवो ने वो उसमणि १४. आँदलँ घोडे ने बाबलेया सणा १५. अांदल ने सुदिवा ने रॉडय ने सु विवा १६. भापड़ि तो बापड़ि ने पारकि सेनाल १७. प्रावि हाटि ने बुद्दि नॉटि १८. प्रावि आदत कारये में जाय १६. उपर वागा ने नेसे नांगा २०. एक एकड़ा वना सब मेंडें खोटं २१. एक सति ने हो जति हरकँ २२. कतुवारि नुं सदरे ने वतुवारि नुं वगड़े २३. करे सेवा इ पावे मेवा २४. कात्या एना सुत ने जण्या एना पुत २५. कामटे वदे इ रोत (Leader) २६. काम सदारो तो पंडे पदारो २७. काम वेले काकि ने पसे मेलि पाकि २८. खायं एनि भुक जाय २६. खोटु नारेल होलि में ३०. गदेड कुगे राजि ३१. गरु गांडिया ने सेला डांडिया ३२. गरिब नि बैरि आका गाम नि भाबि ३३. गोल वना हं सोत ३४. घॉसि नि बेटि ने हानि नो भावको ३५. टालजु इ ने बेजु वि ३६. ठालो पात मोडे में जाय ३७. दइ ने इ देव ने ३८. दुबलि गाय ने बगा गणि ३६. धरम धिर ने पाप उतावले ४०. नदि में खातर सुकामनुं
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वागड़ के लोक साहित्य की एक झांखी
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(७) "प्रारती" (माव संप्रदाय) (i) आरतियो निज नारायण तुमारि ॥ हरि हरि अलख पुरुष अखंड अवन्यासी ॥ प्रारतियों.
.............. ।। १ ।। निरंजन निराकारि ज्योत अपारा ॥ भला मला मुनिजन पार न पाया ॥ प्रारतिरो
......... ॥ २ ॥
प्रारति करंता सकल जन तारया ॥ थम्ब पलोणि भगत प्रलाद उगार्या ।। प्रारतियो..........
........... ।। ३ ।। सुरत सड़ावि वनरावन पोस्या ॥ नुरत मेलि ने अनहद में नास्या प्रारतियो...........
......... ॥ ४ ॥ तनकि रे गादि ने मन का विसावणा ।। त्यांरे बिराज्या हो श्याम प्रवन्यासि ॥ त्यारे बिराज्या हो माव अवन्यासि ॥ प्रारतियो............................. .............. ॥ ५ ॥ कहें तो श्री जनपुरस सनमुक वासा ॥ श्याम विना सर्वे पंड रें कासा ।। माव विना सर्वे पंड हे कासा ॥ प्रारतियो.....
(ii) हरे बाबो खेल खेलावे ने संगे न आवे जोत कला अवन्यासी ।। हरे ।
सकल में व्यापक तेज तमारो तो मुक्ति राखियो घेरे दासि रे ॥ हरे । हरे बाबो अलगो ते अलगो ने बांहें से वलग्यो ।। प्रित करे जेने प्यारो ॥ कोई कहें जोगि ने कोइ कहे भोगि ॥ आप सकल थकि न्यारो॥ हरे ॥ हरे बाबो रंग में रास्यो ने नूरत में नास्यो ।। बालक थ घेरे प्राव्यो। दासमुकन कहे गरिब तमारो ने तो हरि चरण चित्त भासो॥
(iii) प्रारतिपो हरि ने समरु सतमन ज्ञानि करो सादु प्रारति
प्रतमि में पांडव उपज्या ने वस्या नव खंडरे ।। वेद भ्रम्माजि ना पंख्यारे ।। पंख्या भ्रम्मांड रे ।। करो साद प्रारति ।। दसरत ने घेरे अवतर्या ने वेट्यो वनवास रे ।। गड लंका ढारियोरे । कोट लंका ढारियों रे सेंदियो रावण रे ।। करो सादु प्रारति ॥ वसुदेव ने घेरे अवतर्या ने जुग में आनंद रे ॥ कंस मामो मारियोरे ।। मतुरं में खेल्या रासरे ॥ करो सादु प्रारति ॥
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आदिक रंबा रुपे कड़ा गुजरि बहु रंगरे । देवता में श्याम सोइ ॥ देवता में माव सोइ, तिरथ में माहि रे ॥ करो सादु प्रारति || जेना पिता पुरा गुरु सुरा सादु ने मल्या श्याम रे || दास जिवरण नि विनति रे ॥ तमे सुणिलो माराज रे ॥ सुणिलो श्री श्याम रे || करो सादु श्रारति ॥
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(८) लोक वार्ताएँ ( Folk tales.)
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एक भ्रामण तो । पण्णि ने परदेस कमावा ग्यो । कमाइ धमाइ ने बार वरे घेरे पासो श्राव्यो । घेरे प्रावि ने सब ठिकठाक करि ने ने वड नुं श्राणु लेवा हरि-ग्यो । वाट में एक दोव बलंतु ऋतु ने प्रेरणा दोव में एक हाप पड़ा में बलतो ने बुम पाड़तो प्रतो । भ्रामण ने जोइ ने सापे क्यु के भाइ, मने बसाव । भ्रामण के के गुणना माइ श्रवगुण थाय ते तु मने खाइ जाय एटले श्रीं तो तने नें बसावं । सापे खौब कालावाला कर्या एटले भ्रामणे ने बांरतो काड्यो । बारते आवि ने साप के के न तो तने खो । भ्रामण के के बार वरे नो घेरे श्राव्यो सो ने मारे वो नुं प्राणु करवा जौ सौ । साप क्युके प्राण करि ने वलतो श्रावतारे खँ । भ्रामण सारे पुगो । आट दाड़ा र्यो पण अनपाणि नें भावे । ने साले पुस्यु के जिजाजि उदास केम रो सो ? भ्रामणे सब बात मांडने के सबलावि । साले क्यु के साप प्रजि बेटो नें प्रोवे, तमें सन्ता सोड़ि दो । प्राणु वदा कर्तुं ने भ्रामण ने ने वो सपना रापड़ा कने आव्यं के तरत साप आदि ने ग्राडो उबो यो । साप के वाट जोतों तो । श्रधे खौं । भ्रामण नि वौ तो पोक मेलि ने रोवा मांडि । साप के के तु सानि रे । खौब धन प्रय डाट्यु से ते लै जा ने आ बुटि से ते जे तने सताव वा सामु आवे ने डाड़ि देजे ते मसम थे जासे । प्रेम कँ ने जेवो साप भ्रामरण ने खावा ग्यो के तरत पेलि बाइये बुटि साप ने प्रडाड़ि दिदि । सांप तो तरत मसम र्थं ग्यो । भ्रामरण खौब राजि थ्यो ने घणि वौ बे घन ले ने घेरे श्राव्यं ने खाइ पी ने मज़ा कर्या !! कर्या पुढे नें करे ऐना गरु खोटा ||
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प्रा० डॉ. एल. डी. जोशी
( ii )
जेम तेम करि ने डोइए तर सें रुपिया बेटा नि सुगाइ बल्ले पड़ि । श्रेवामें मेलो भरातो प्रतो । बेटे क्यु के श्राइ मने तण रुपिया लैजा | बेटे तण रुपिया रेवा
"एक डोइ ने एक जवान बेटो प्रतो । भेगा करि मेल्या अता । डोइ खाटला में माँदि पैसा आल ए मेलो जोइ श्रावु । डोइए क्युके तणसे में आ दिदा ने बिजा सब लै ग्यो । मेला में थकि एक सांप लिदो, एक (बिल्ली ) लिदि । घेरे प्रावि ने आइ ने रात करि तारे आइ तो तो देवलोक । एक दाड़ो साप के के मने मारे मां-बाप कने पण तु मारे बाप कने थकि श्रानि मुद्रिकास माँगजे । बेटो साप मे खुशि यँ ने लावनार ने मांगवा क्यु । पेले तो मुद्रिका मांगी। नाग के के तारेवति नें सँबालाय ने तु दुकि
मेलवा ग्यो । साप नँ माँ- बाप खोब
थे । पण पेलो एकनो बे ने थ्यो एटले मुद्रिका प्रालि दिदि ने क्यु के राज थे ने माइ तो घेरे श्राव्या 1 विवा नि तैनारि करि करे से । भाइ नाइ धोई ने तँ थे ने मॉडवा में बेटो ने मुद्रिका ने क्यु के देवलोक नि परि भावि जाय । खरे खर
जे जुवे इ श्रा मुद्रिका तने आलसे माँडवो उगो ने भ्रांमरण बेटा ने पेलो
सुड़ो (पोपट) लिदो ने एक मनाड़ि साति कुटि ने रोइ । थोडँ दाड़ में डोइ रॉपड़ा में मेलि आव तने नेंयाल करसे ।
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वागड़ के लोक साहित्य की एक झांकी
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एक रूपालि श्रवसरा प्रावि उबि । बेनं लगन थे ग्यं । श्रवसरा के के मारे रेवा पाणि ना घाट उपर सात
माल नंं मेल मंदावो । भाइये तो मुद्रिका पाए मेल मांग्यु ने मेल तैयार थे ग्यु । बेजों सुक थकि रेवा लागं । एक दाड़ो पेलो तो पोपट तथा मनाड़ि ने लेन वन में फरवा ग्यो तो ने पेलि तलाव ने श्रारे नावा बेट नेवाल प्रोलिने कांगि येंम भुलि गै। सोनानि कांग में सोनेरि वाल जोइ ने राजा नो कंवीर केवा मांड्यो के तो आनेस । राज हट के बाल हट ते राजाए देम देस नि दुतिए बोलावि ने खबर कडावि । वे दुतिये पेला मेल नेंसे जाइ ने बेटि ने जोरट थकि रोवा मांडि- 'श्रमारे बोन प्रति तारे प्रमारा प्रादर भाव थाता ता अवे वउ ने भांणेज भाजि नो भावे नति पुसतं ।' पेलो आदमि पासो श्राव्यो तारे ने वीए वात करि के तमारे माइए श्रावि हैं ने मेल नेंसे बेइ ने ककलाट करें सें । पेलोके के मने तो मारे कोय श्राइ माइ नि खबर नति । श्रतो कोक ठग विद्या करवा वालि दुति राँडे सें परण पेलि बाइ ने दया प्रावि एटले बे ने मेल में तेड़ावि । एक दाड़ो पेलो फेर बार ग्यो तारे दुति पुमें के वऊ मा मेल ने सब आलालिला एकदम सेरते थे गइ | तारे पेली के के सेसनागनि मुद्रिका थकि सब थ्यु से । दुत्ति के के आपण जो तो खरं के प्रति मुद्रिका केवि से । वऊ श्राजे तु मांगि लेजे पेलिए ने धरिण पाइ मुद्रिका माँगि एटले पेला ने वेम पड्यो ने आलवा नुं क्यु । पेलि खिजाइ गँ ने सुला ऊपर खाटलो डालि ने सुति । श्रा सब किमिया R दुत्तिए मालिति को पेले लासार थे ने मुद्रिका प्रालि । पेला ने आगो पासो थावा दे ने एक दुति के के देकं
।
वों मारे आँगलि में श्रावे के ज़रा जोवा तो दे । ग्रेटले बीए अलि दिदि ने तरत दुत्तिए क्यु के हे मुद्रिका श्री मेले सेतु मारे देस साल, एटले मेल ने परि ने सब अलोप थै ग्यँ । राजा ने सेर में जाइ ने वाइ ने मेलि पण बाइये क्यु के सो मैनं नुं मारे वरत से श्रेटले पुरस नुं मोडु नें जोवुं । पसे जेम को प्रेम करे । एक थंबिया मेल में बाइ रेवा लागि ने पंकिड़ ने दाणा सगाव वा में ने सूर्यनारण नि आरादना करवा में दाड़ो रातर कडवा लागि । श्रय पेलो श्राव्यो परण मेल के परि कोय नें दिक्यु एटले रोवा मांडयो । तारे पोपट के के / मने सिटि लकि आलो ते जे ओवे यं जाइ ने खबर काडि लावुं । पोपट उड़तो २ राजा ना सेर में प्रावी ने एक थंबिया मेल में सगो सगवा सब जनावरं भेगो जाइ ने बेटो । बिजें सब सगँ ने श्रा पोपट डलडल आँऊ पाडे इ जोइ ने बाइ ने करणे प्रावि तो सुड़ा ने गला में सिटि जोइ । सिटि लइने वांसि ने राजि थे तरत वलतु कागद लकि ने सुडा ने गले मांदि प्राल्यु । पासो पेला पाय श्राव्यो मनाइ न ने पोपट ने ले ने पेलो राजा न सेर श्राव्यो । मुद्रिका तो दुति श्राटे पोर ना मोंडा में स राकति ति । श्रेवा में प्रदर नि जान जाति 'ति । मनाड़िये उदरें ना वोर ने साइ लिदो नै सब नोंदर ने क्यु के दुत्ति नें मोंडा मेंइ मुद्रिका आणि आलो तो स वोर ने सुदो करू" । सब प्रदरे मेल में पेइ ग्यं ने सात मे माले सुतिति यं दुत्ति ने नाकोरा में एक प्रदरे पोंसड़ घालि एटले पेलि ने जोर नि सेंक प्रावि ने मोडा मेंइ मुद्रिका बारति पड़िगे । एकबिजु नोंदरु मुद्रिका मोंडा में साइ ने नाइ ग्युं ने जाइ नें मनाड़ि ने प्रालि एटले मनाड़िए वोर ने सोड़ि दिदो । मुद्रिका पेला ने मलि एटले प्रे क्यु के मुद्रिका या प्राकु मेल पासु मारि जोनि जगा ऊपर ले जाइ ने मेलि दे ने पोपट नै मनाड़ि ने लै ने इ मेल ने अडि उबो एटले सब जरण पास अतं यं श्रावि ग्यं । पोताना धणि ने जोइ ने परि खौब खुस थे ने सब जण खाइ पिने लेर करवा लागं !! सगा बापनो ए विसवा नें कर वो !!
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________________ प्रो. डॉ. एल. डी. जोशी (i) (9) 'भड़लि वाक्य सुक्करवारि वादलि जो थावोरे जाय / बे काँटे नदिये सडें ने जल बंबारण थाय / / भोंडो मणि नो वो करे मनक नि हारण / वरे करतिका नकेतरे तो करे जगत कल्याण / / (iii) वरे नकेतर रोयणि रेले खाँकर पान / तो पाके होवन हरा धरति उपर धान / / कड़ा पड़े जए वरेइ वर माडतु थाय / थै जाय जो मावटु तरे लै इ जाय / / (v) तेतर वरणि वादलि ने काजल वरणि रेक / पवन पारिण साते पड़े थायं मिन ने मेक / / (vi) काबेरे ने कागला ने बोलें घुघोड़ / कण में पाके धान नो पड़े काल के ठोड़ // (vii) गाम में रोवें कुतरं ने सेम में रोवें हेंयाल / गाँट गोट बांदिलो नंक्कि पड़े काल / (viii) थाय उगमणि विजलि तो कोरो काड़े ताप / थाय प्रातमणि विजलि तो अन नो संताप / /