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________________ ७२ प्रो० डॉ. एल. डी. जोशी हुई थी। ढेबर के कार्य में गलालेंग का मुख्य हाथ रहा होने से और कडारणा के आक्रमण में वीरगति को प्राप्त होने के दरमियान साजँ साँदरवाडँ की दो राजकुमारियों से शादी करने आदि अनेक प्रसंगों के प्राधार पर गलालसिंह की आयु ( वि० १७३० - १७५१ ) निश्चित की है और डूंगरपुर के महारावल लक्ष्मणसिंह जी ने इसका समर्थन भी किया है । २१ साल की भरी जवानी की आयु में खेत रहने वाले इस गलालसिंह की संक्षिप्त परंतु शौर्यभरी कथा रोमांटिक तथा प्रति करुण है । "भाइयँ - भाइयँ नो वकरो लागो ने सोड़या पूरब देते जियें " आपसी बंटवारे को लेकर कुटुम्ब में कलह और परिणामस्वरूप कुहराम मचा | मातृभक्त गलालेंग ने माँ से पूछा- 'मां जणेता श्रोकम करो मुळे भाइयँ नो गालु धारणए जियॅ । पिता लालसिंह का स्वर्गवास हो चुका था। विधवा माँ की आज्ञा पर गलालसिंह चलता था । माँ ने अन्यत्र जाकर अजीविका प्राप्त कर पुरुषार्थ और पराक्रम आजमाने की आज्ञा दी। फलतः अनुज गुमानसिंह तथा चचेरे भाई वखतसिंह व कुछ सेवकों सहित पूरब देश छोड़ कर गलालेंग चित्तौड़ आ पहुचा । "ॐटे उसाला गाड़े तंबुड़ा कैंप राणियँ नि सकवाले जियँ पुरवा थका खड़या गलालेंग कँच बाँका सितोड़ माते जियें ।" उस समय महाराणा का मुकाम उदयपुर था अतः उछाला लिये हुए वह उदयपुर आया । उसके तेज व रौब को देखकर राणा ने उसे २५ हजार का पट्टा देकर रख लिया और खंराड़ में मैड़ी बनाकर रहने की सलाह दी । खैराड़ के इलाके में पानी की कमी थी। एक बार सूअर की गौठ खाते वक्त गलालसिंह ने राणा से इसका जिक्र किया और मेवल का नाका बाँधने की प्राज्ञा प्राप्त करली । तलवाड़ा के सलाट बुलाये गये, मालवा से औढ़ लाये गये और लोहारिया के लोहे व बरोडा खान के पत्थरों से ढेबर पक्का बंधवाया गया । तीन दिन का काम बाकी था कि गलालेंग ने प्रौड़ों से डेराडीट एक मेवाड़ी रुपया सरकारी तंबु रफू कराने वसूल करना चाहा । इस पर झगड़ा हुआ रितु भालु कुवोर गलालेंग श्रौड नो गाल्यो धारणं जियँ' कुछ प्रोड़ भाग निकले और महाराणा जयसिंह को हकीकत कही। जयसमुद्र की यह घटना कलंकरूप थी अतः राणा ने गलालेंग को मेवाड़ की सरहद छोड़कर चले जाने का फर्मान किया । स्वाभिमानी गलालेंग ने पुनः उछाला भरा और सलु बर, जैताना होता हुआ वह सोम नदी पर आ गया । सलुम्बर में उस समय रावजी भैरुसिंह जी का शासन था - उन्होंने गलाल को रोकना चाहा पर वह नहीं माना । सोमनदी का पानी जयसमुद्र के अटे से आता है। इस काले पानी को देखकर वह कहता है 'कालें कालेँ निर नदिने भाइ केयँ थकं श्रायें जियँ' वक्ता उत्तर देता है- 'राज नं बंदाव्यँ ढेबरियं दादा एयँ थकं श्रावें जियँ' इस पानी को पीना हराम करके डूंगरपुर की सरहद में नये बीड़े खोद कर मुंह में पानी डाला पौर आसपुर की धोली वाव पर आकर पड़ाव डाला । गलालेंग को आत्म विश्वास था कि " श्रापड़ी तरवारे तेज प्रोवें तो श्रापे ब्रमरणा पटा करें जिसँ" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211453
Book TitleBagad ke lok Sahitya ki Zankhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL D Joshi
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size2 MB
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