Book Title: Avashyaka Kriya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 5
________________ १७८ जैन धर्म और दर्शन जो द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग एक-एक से या दोनों से रहित है, वह अवन्ध है। श्रवन्दनीय तथा वन्दनीय के संबन्ध में सिक्के की चतुर्भङ्गी प्रसिद्ध है (श्रा० नि०, गा० ११३८) । जैसे चाँदी शुद्ध हो पर मोहर ठीक न लगी हो तो वह सिक्का ग्राह्य नहीं होता । वैसे ही जो भावलिंगयुक्त हैं, पर द्रव्यलिंगविहीन हैं, उन प्रत्येक बुद्ध आदि को वन्दन नहीं किया जाता । जिस सिक्के पर मोहर तो ठीक लगी है, पर चाँदी अशुद्ध है. वह सिक्का ग्राह्य नहीं होता । वैसे ही द्रव्यलिंगधारी होकर जो भावलिंगविहीन हैं वे पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के कुसाधु अवन्दनीय हैं। जिस सिक्के की चाँदी और मोहर, ये दोनों ठीक नहीं है, वह भी अनाह्य है । इसी तरह जो द्रव्य और भाव-उभयलिंगरहित हैं वे वन्दनीय नहीं । वन्दनीय सिर्फ वे ही हैं, जो शुद्ध चाँदी तथा शुद्ध मोहर वाले सिक्के के समान द्रव्य और भाव-उभयलिंग सम्पन्न हैं (श्रा० नि०, गा० ११३८) । अवन्ध को वन्दन करने से वन्दन करने वाले को न तो कर्म की निर्जरा होती है और न कीर्ति ही । बल्कि असंयम आदि दोषों के अनुमोदन द्वारा कर्मबन्ध होता है (श्रा० नि०, गा० ११०८) । अवन्द्य को वन्दन करने से वन्दन करनेवाले को ही दोष होता है, यही बात नहीं, किंतु अवन्दनीय के आत्मा का भी गुणी पुरुषों के द्वारा अपने को वन्दन कराने रूप असंयम की वृद्धि द्वारा अधःपात होता है (श्रा० नि०, गा० १११०) । वन्दन बत्तीस दोषों से रहित होना चाहिए । अनाहत अादि वे बत्तीस दोष आवश्यक नियुक्ति, गा० १२०७-१२११ में बतलाए हैं । (४) प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभ योग को प्राप्त करना, यह 'प्रतिक्रमण १ है । तथा अशुभ योग को को छोड़कर उत्तरोत्तर शुभ योग में वर्तना, यह भी 'प्रतिक्रमण'२ है । प्रतिवरण, परिहरण, करण, निवृत्ति, निन्दा, गहीं और शोधि, ये सब प्रतिक्रमण के समानार्थक शब्द हैं (आ०नि० गा० १२३३) । इन शब्दों का भाव समझाने के लिए प्रत्येक शब्द को व्याख्या पर एक-एक दृष्टान्त दिया गया है, जो बहुत मनोरंजक है (आ०-नि०, गा० १२४२) । १- स्वस्थानाद्यन्परस्थानं प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥ २--प्रतिवर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । .. निःशल्यस्य यतेर्यत् तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥१॥ -आवश्यक-सूत्र, पृष्ठ ५५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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