Book Title: Avashyaka Kriya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 11
________________ १८४ जैन धर्म और दर्शन कहता है कि 'आवश्यक क्रिया' श्रात्मा को प्राप्त भाव शुद्धि से गिरने नहीं देती, उसको पूर्व भाव भी प्राप्त कराती है तथा क्षायोपशिक-भाव-पूर्वक की जानेवाली क्रिया से पतित श्रात्मा की भी फिर से भाववृद्धि होती है । इस कारण गुणों की वृद्धि के लिए तथा प्राप्त गुणों से स्खलित न होने के लिए 'श्रावश्यक-क्रिया' का आचरण अत्यन्त उपयोगी है। व्यवहार में आरोग्य, कौटुम्बिक नीति, सामाजिक नीति इत्यादि विषय सम्मिलित हैं । आरोग्य के लिए मुख्य मानसिक प्रसन्नता चाहिए । यद्यपि दुनियाँ में ऐसे अनेक साधन हैं, जिनके द्वारा कुछ-न-कुछ मानसिक प्रसन्नता प्राप्त की जाती है, पर विचार कर देखने से यह मालूम पड़ता है कि स्थायी मानसिक प्रसन्नता उन पूर्वोक्त तत्त्वों के सिवाय किसी तरह प्राप्त नहीं हो सकती, जिनके ऊपर 'श्रावश्यकक्रिया' का आधार है । कौटुम्बिक नीति का प्रधान साध्य सम्पूर्ण कुटुम्ब को सुखी बनाना है । इसके लिए छोटे-बड़े सत्र में एक दूसरे के प्रति यथोचित विनय, आज्ञा-पालन, नियमशीलता और प्रमाद का होना जरूरी है । ये सब गुण 'श्रावश्यक-क्रिया' के आधारभूत पूर्वोक्त तत्त्वों के पोषण से सहज ही प्राप्त हो जाते हैं । सामाजिक नीति का उद्देश्य समाज को सुव्यवस्थित रखना है । इसके लिए विचार-शीलता, प्रामाणिकता, दीर्घदर्शिता और गम्भीरता आदि गुण जीवन में ने चाहिए, जो 'आवश्यक क्रिया' के प्राणभूत छह तत्त्वों के सिवाय किसी तरह सकते । नहीं इस प्रकार विचार करने से यह साफ जान पड़ता है कि शास्त्रीय तथा व्यवहारिक दोनों दृष्टि से 'श्रावश्यक क्रिया' का यथोचित अनुष्ठान परम लाभदायक है । प्रतिक्रमण शब्द की रूढ़ि - प्रतिक्रमण शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रति + क्रमण = प्रतिक्रमण' ऐसी है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार उसका अर्थ 'पीछे फिरना', इतना ही होता है, परन्तु रूढ़ि के बल से 'प्रतिकमण' शब्द सिर्फ चौथे 'श्रावश्यक' का तथा छह श्रावश्यक के समुदाय का भी बोध कराता है । अन्तिम अर्थ में उस शब्द की प्रसिद्धि इतनी अधिक हो गई गुणवृद्धया ततः कुर्यात्क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं जिनानामवतिष्ठते ||७|| Jain Education International -- ज्ञानसार, क्रियाष्टक | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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