Book Title: Avashyaka Kriya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक क्रिया - वैदिकसमाज में 'सन्ध्या' का, पारसी लोगों में 'खोर देह अवस्ता' का, यहूदी तथा ईसाइयों में प्रार्थना' का और मुसलमानों में 'नमाज' का जैसा महत्त्व है; जैन समाज में वैसा ही महत्त्व 'अावश्यक' का है। जैन समाज की मुख्य दो शाखाएँ हैं, (१) श्वेताम्बर और (२) दिगम्बर । दिगम्बर-सम्प्रदाय में मुनि-परंपरा विच्छिन्न-प्रायः है। इसलिए उसमें मुनियों के "श्रावश्यक-विधान' का दर्शन सिर्फ शास्त्र में ही है, व्यवहार में नहीं है । उसके श्रावक-समुदाय में भी 'श्रावश्यक' का प्रचार वैसा नहीं है, जैसा श्वेताम्बरशाखा में है। दिगम्बर समाज में जो प्रतिमाधारी या ब्रह्मचारी आदि होते हैं, उनमें मुख्यतया सिर्फ 'सामायिक' करने का प्रचार देखा जाता है। शृंखलाबद्ध रीति से छहों 'अावश्यकों का नियमित प्रचार जैसा श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में आबालवृद्ध प्रसिद्ध है। वैसा दिगम्बर-सम्प्रदाय में प्रसिद्ध नहीं है । अर्थात् दिगम्बरसम्प्रदाय में सिलसिलेवार छहों 'श्रावश्यक' करने की परम्परा देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चतुर्मासिक और साम्वत्सरिक रूप से वैसी प्रचलित नहीं है, जैसी श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में प्रचलित है। यानी जिस प्रकार श्वेताम्बर-सम्प्रदाय सांयकाल, प्रातःकाल, प्रत्येक पक्ष के अन्त में, चातुर्मास के अन्त में और वर्ष के अन्त में स्त्रियों का तथा पुरुषों का समुदाय अलग-अलग या एकत्र होकर अथवा अन्त में अकेला व्यक्ति ही सिलसिले से छहों 'श्रावश्यक' करता है, उस प्रकार 'श्रावश्यक' करने की रीति दिगम्बरसम्प्रदाय में नहीं है। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की भी दो प्रधान शाखाएँ हैं-(१) मूर्तिपूजक और (२) स्थानकवासी। इन दोनों शाखाओं की साधु-श्रावक-दोनों संस्थानों में दैवसिक, रात्रिक अादि पाँचो प्रकार के 'अावश्यक' करने का नियमित प्रचार अधिकारानुरूप बराबर चला आता है। मूर्तिपूजक और स्थानकवासी---दोनों शाखात्रों के साधुनों को तो सुबह शाम अनिवार्यरूप से 'आवश्यक' करना ही पड़ता है; क्योंकि शास्त्र में ऐसी अाज्ञा है कि प्रथम और चरम तीर्थकर के साधु 'आवश्यक' नियम से करें। अतएव यदि वे उस आज्ञा का पालन न करें तो साधु-पद के अधिकारी ही नहीं समझे जा सकते । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक क्रिया १७५ : श्रावकों में 'आवश्यक' का प्रचार वैकल्पिक हैं। अर्थात् जो भावुक और नियमवाले होते हैं, वे अवश्य करते हैं और अन्य श्रावकों की प्रवृत्ति इस विषय में ऐच्छिक है । फिर भी यह देखा जाता है कि जो नित्य 'श्रावश्यक' नहीं करता, वह भी पक्ष के बाद, चतुर्मास के बाद या आखिरकार संवत्सर के बाद, उसको यथासम्भव अवश्य करता है । श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में 'श्रावश्यक क्रिया' का इतना आदर है कि जो व्यक्ति अन्य किसी समय धर्मस्थान में न जाता हो, वह तथा छोटे-बड़े बालक-बालिकाएँ भी बहुधा साम्वत्सरिक पर्व के दिन धर्मस्थान में 'श्रावश्यक-क्रिया' करने के लिए एकत्र हो ही जाते हैं और उस क्रिया को करके सभी अपना अहोभाग्य समझते हैं। इस प्रवृत्ति से यह स्पष्ट है कि 'आवश्यक - क्रिया' का महत्त्व श्वेताम्बर- सम्प्रदाय में कितना अधिक है । इसी स से सभी लोग अपनी सन्तति को धार्मिक शिक्षा देते समय सबसे पहिले 'श्रावश्यकक्रिया' सिखाते हैं । जन-समुदाय की सादर प्रवृत्ति के कारण 'आवश्यक क्रिया' का जो महत्त्व प्रमाणित होता है, उसको ठीक-ठीक समझाने के लिए 'आवश्यक-क्रिया' किसे कहते हैं ? सामायिक आदि प्रत्येक 'आवश्यक' का क्या स्त्ररूप है ? उनके भेदक्रम की उपपत्ति क्या है ? 'आवश्यक - क्रिया' आध्यात्मिक क्यों है ? इत्यादि कुछ मुख्य प्रश्नों के ऊपर तथा उनके अन्तर्गत अन्य प्रश्नों के ऊपर इस जगह विचार करना आवश्यक है | परन्तु इसके पहिले यहाँ एक बात बतला देना जरूरी है । और वह यह है कि 'आवश्यक-क्रिया' करने की जो विधि चूर्णि के जमाने से भी बहुत प्राचीन थी और जिसका उल्लेख श्रीहरिभद्रसूरि-जैसे प्रतिष्ठित आचार्य ने अपनी आव श्यक- वृत्ति पृ०, ७६० में किया है । वह विधि बहुत अंशों में अपरिवर्तित रूप से ज्यों की त्यों जैसी श्वेताम्बर मूर्त्तिपूजक-सम्प्रदाय में चली आती है, वैसी स्थानक - वासी सम्प्रदाय में नहीं है । यह बात तपागच्छ, खरतरगच्छ आदि गच्छों की सामाचारी देखने से स्पष्ट मालूम हो जाती है । स्थानकवासी - सम्प्रदाय की सामाचारी में जिस प्रकार 'श्रावश्यक क्रिया' में बोले जानेवाले कई प्राचीन सूत्रों की, जैसे:- पुक्खरवरदीवड्ढे, सिद्धाणं बुद्धाणं, अरिहंतचेइयाणं, आयरियउवज्झाए, प्रभुडियोsहं, इत्यादि की काट-छाँट कर दी गई है, इसी प्रकार उसमें प्राचीन विधि की भी काट-छाँट नजर आती है। इसके विपरीत तपागच्छ, खरतरगच्छ आदि की सामाचारी में 'आवश्यक' के प्राचीन सूत्र तथा परिवर्तन किया हुआ नजर नहीं आता । अर्थात् उसमें से लेकर यानी प्रतिक्रमण की स्थापना से लेकर 'प्रत्याख्यान' पर्यन्त के छहीं प्राचीन विधि में कोई 'सामायिक - आवश्यक' Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ जैन धर्म और दर्शन 'आवश्यक' के सूत्रों का तथा बीच में विधि करने का सिलसिला बहुधा वही है, जिसका उल्लेख श्रीहरिभद्रसूरि ने किया है। यद्यपि प्रतिक्रमण स्थापन के पहले चैत्य-चन्दन करने की और छठे 'श्रावश्यक' के बाद सज्झाय, स्तवन, स्तोत्र आदि पढ़ने की प्रथा पोछे सकारण प्रचलित हो गई है; तथापि मूर्तिपूजक-सम्प्रदाय की 'आवश्यक-क्रिया'-विषयक सामाचारी में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उसमें 'आवश्यकों के सूत्रों का तथा विधि का सिलसिला अभी तक प्राचीन ही चला पाता है।। __ 'आवश्यक' किसे कहते हैं ? जो क्रिया अवश्य करने योग्य है, उसी को "श्रावश्यक" कहते हैं । 'श्रावश्यक-क्रिया' सब के लिए एक नहीं, वह अधिकारी-भेद से जुदी-जुदी है। एक व्यक्ति जिस क्रिया को श्रावश्यक कर्म समझकर नित्यप्रति करता है, दूसरा उसी को आवश्यक नहीं समझता। उदाहरणार्थ-एक व्यक्ति काञ्चन-कामिनी को आवश्यक समझ कर उसकी प्राप्ति के लिए अपनी सारी शक्ति खर्च कर डालता है और दूसरा काञ्चन-कामिनी को अनावश्यक समझता है और उसके संग से बचने की कोशिश ही में अपने बुद्धि-बल का उपयोग करता है। इसलिए 'श्रावश्यक क्रिया का स्वरूप लिखने के पहले यह बतला देना जरूरी है कि इस जगह किस प्रकार के अधिकारियों का आवश्यक-कर्म विचारा जाता है। सामान्यरूप से शरीर-धारी प्राणियों के दो विभाग हैं:-(१) बहिण्टि और (२) अन्तर्दृष्टि । जो अन्तर्दृष्टि है--जिनकी दृष्टि आत्मा की अोर झुकी है अर्थात् जो सहज सुख को व्यक्त करने के विचार में तथा प्रयत्न में लगे हुए हैं, उन्हीं के 'अावश्यक-कर्म' का विचार इस जगह करना है। इस कथन से यह स्पष्ट सिद्ध है कि जो जड़ में अपने को नहीं भूले हैं-जिनकी दृष्टि को किसी भी जड़ वस्तु का सौन्दर्य लुभा नहीं सकता, उनका 'श्रावश्यक-कर्म' वही हो सकता है, जिसके द्वारा उनका आत्मा सहज सुख का अनुभव कर सके । अन्तर्दृष्टि वाले अात्मा सहज सुख का अनुभव तभी कर सकते हैं, जब कि उनके सम्यक्त्व, चेतना, चारित्र आदि गुण व्यक्त हो। इसलिए वे उस क्रिया को अपना 'श्रावश्यक-कर्म' समझते हैं, जो सम्यक्त्व आदि गुणों का विकास करने में सहायक हो । अतएव इस जगह संक्षेप में 'अावश्यक की व्याख्या इतनी ही है कि ज्ञानादि गुणों को प्रकट करने के लिए जो क्रिया अवश्य करने के योग्य है, वही 'श्रावश्यक' है। ऐसा 'श्रावश्यक' ज्ञान और क्रिया-उभय परिणामरूप अर्थात् उपयोगपूर्वक की जानेवाली क्रिया है। यही कर्म आत्मा को गुणों से वासित कराने Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आवश्यक क्रिया वाला होने के कारण 'श्रावासक' भी कहलाता है। वैदिकदर्शन में 'आवश्यक' समझे जानेवाले कर्मों के लिए नित्यकर्म' शब्द प्रसिद्ध है। जैनदर्शन में 'अवश्य-कर्तव्य' ध्रुव, निग्रह, विशोधि, अध्ययनषटक, वर्ग, न्याय, आराधना, मार्ग आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जो कि 'आवश्यक' शब्द के समानार्थक-पर्याय हैं (श्रा वृत्ति, पृ० ५६ )। सामायिक आदि प्रत्येक 'आवश्यक' का स्वरूप-स्थूल दृष्टि से 'श्रावश्यक क्रिया' के छह विभाग----भेद किये गए हैं--(१) सामायिक, (२) चतुर्विंशतिस्तव, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान । (१) राग और द्वेष के वश न होकर समभाव-मध्यस्थ-भाव में रहना अर्थात् सबके साथ आत्मतुल्य व्यवहार करना 'सामायिक' है (प्रा० नि०, गा० १०३२) । इसके (१) सम्यक्त्वसामायिक, (२) श्रुतसामायिक और (३) चारित्र सामायिक, ये तीन भेद हैं, क्योंकि सम्यक्त्व द्वारा, श्रुत द्वारा या चारित्र द्वारा ही समभाव में स्थिर रहा जा सकता है। चारित्रसामायिक भी अधिकारी की अपेक्षा से (१) देश और (२) सर्व, यों दो प्रकार का है। देश सामायिकचारित्र गृहस्थों को और सर्वसामायिकचारित्र साधुओं को होता है (आ. नि०, गा०७६६ ) । समता, सम्यक्त्व, शान्ति, सुविहित श्रादि शब्द सामायिक के पर्याय हैं (प्रा० नि०, गा० १०३३ )। (२. चतुर्विंशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकर, जो कि सर्वगुण-सम्पन्न आदर्श हैं, उनकी स्तुति करने रूप है। इसके (१) द्रव्य और (२) भाव, ये दो भेद हैं। पुष्प आदि सात्त्विक वस्तुओं के द्वारा तीर्थंकरों की पूजा करना 'द्रव्यस्तव' और उनके वास्तविक गुणों का कीर्तन करना 'भावस्तव' है (श्रा०, पृ० ४६२ )। अधिकारी--विशेष गृहस्थ के लिए द्रव्यस्तव कितना लाभदायक है, इस बात को विस्तारपूर्वक आवश्यक नियुक्ति, पृ० ४६२-४६३ में दिखाया है। (३) वंदन-मन, वचन शरीर का वह व्यापार वंदन है, जिससे पूज्यों के प्रति बहुमान प्रगट किया जाता है। शास्त्र में वंदन के चिति कर्म, कृति-कर्म, पूजाकर्म आदि पर्याय प्रसिद्ध हैं ( श्रा० नि०, गा० ११०३)। वंदन के यथार्थ स्वरूप जानने के लिए वंद्य कैसे होने चाहिए ? वे कितने प्रकार के हैं ? कौनकौन अवंद्य है ? अवंद्य वंदन से क्या दोष है ? वंदन करने के समय किन-किन दोषों का परिहार करना चाहिए, इत्यादि बातें जानने योग्य हैं। द्रव्य और भाव उभय-चारित्रसम्पन्न मुनि ही वन्ध हैं (श्रा० नि०, गा० ११०६ ) । वन्द्य मुनि (१) प्राचार्य, (२) उपाध्याय, (३) प्रवर्तक, (४) स्थविर और (५) रत्नाधिक रूप से पाँच प्रकार के हैं ( आ. नि०, गा० ११६५ )। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन धर्म और दर्शन जो द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग एक-एक से या दोनों से रहित है, वह अवन्ध है। श्रवन्दनीय तथा वन्दनीय के संबन्ध में सिक्के की चतुर्भङ्गी प्रसिद्ध है (श्रा० नि०, गा० ११३८) । जैसे चाँदी शुद्ध हो पर मोहर ठीक न लगी हो तो वह सिक्का ग्राह्य नहीं होता । वैसे ही जो भावलिंगयुक्त हैं, पर द्रव्यलिंगविहीन हैं, उन प्रत्येक बुद्ध आदि को वन्दन नहीं किया जाता । जिस सिक्के पर मोहर तो ठीक लगी है, पर चाँदी अशुद्ध है. वह सिक्का ग्राह्य नहीं होता । वैसे ही द्रव्यलिंगधारी होकर जो भावलिंगविहीन हैं वे पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के कुसाधु अवन्दनीय हैं। जिस सिक्के की चाँदी और मोहर, ये दोनों ठीक नहीं है, वह भी अनाह्य है । इसी तरह जो द्रव्य और भाव-उभयलिंगरहित हैं वे वन्दनीय नहीं । वन्दनीय सिर्फ वे ही हैं, जो शुद्ध चाँदी तथा शुद्ध मोहर वाले सिक्के के समान द्रव्य और भाव-उभयलिंग सम्पन्न हैं (श्रा० नि०, गा० ११३८) । अवन्ध को वन्दन करने से वन्दन करने वाले को न तो कर्म की निर्जरा होती है और न कीर्ति ही । बल्कि असंयम आदि दोषों के अनुमोदन द्वारा कर्मबन्ध होता है (श्रा० नि०, गा० ११०८) । अवन्द्य को वन्दन करने से वन्दन करनेवाले को ही दोष होता है, यही बात नहीं, किंतु अवन्दनीय के आत्मा का भी गुणी पुरुषों के द्वारा अपने को वन्दन कराने रूप असंयम की वृद्धि द्वारा अधःपात होता है (श्रा० नि०, गा० १११०) । वन्दन बत्तीस दोषों से रहित होना चाहिए । अनाहत अादि वे बत्तीस दोष आवश्यक नियुक्ति, गा० १२०७-१२११ में बतलाए हैं । (४) प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभ योग को प्राप्त करना, यह 'प्रतिक्रमण १ है । तथा अशुभ योग को को छोड़कर उत्तरोत्तर शुभ योग में वर्तना, यह भी 'प्रतिक्रमण'२ है । प्रतिवरण, परिहरण, करण, निवृत्ति, निन्दा, गहीं और शोधि, ये सब प्रतिक्रमण के समानार्थक शब्द हैं (आ०नि० गा० १२३३) । इन शब्दों का भाव समझाने के लिए प्रत्येक शब्द को व्याख्या पर एक-एक दृष्टान्त दिया गया है, जो बहुत मनोरंजक है (आ०-नि०, गा० १२४२) । १- स्वस्थानाद्यन्परस्थानं प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥१॥ २--प्रतिवर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । .. निःशल्यस्य यतेर्यत् तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥१॥ -आवश्यक-सूत्र, पृष्ठ ५५३ । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक क्रिया. १७६ प्रतिक्रमण का मतलब पीछे लौटना है—एक स्थिति में जाकर. फिर मूल स्थिति को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण शब्द की इस सामान्य व्याख्या के अनुसार ऊपर बतलाई हुई व्याख्या के विरुद्ध अर्थात् अशुभ योग से हट कर शुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से अशुभ योग को प्राप्त करना यह भी प्रतिक्रमण कहा जा सकता है । अतएव यद्यपि प्रतिक्रमण के (१) प्रशस्त और (२) अप्रशस्त, ये दो भेद किये जाते हैं ( श्रा०, पृ० ५५२ ), तो भी 'श्रावश्यक' क्रिया में जिस प्रतिक्रमण का समावेश है वह अप्रशस्त नहीं किन्तु प्रशस्त ही है; क्योंकि इस जगह अन्तर्दृष्टि वाले-आध्यात्मिक पुरुषों की ही आवश्यक-क्रिया का विचार किया जाता है । (१) दैवसिक, (२) रात्रिक, (३। पाक्षिक, (४) चातुर्मासिक और (५) सांवत्सरिक, ये प्रतिक्रमण के पाँच भेद बहुत प्राचीन तथा शास्त्रसंमत हैं; क्योंकि इनका उल्लेख श्री भद्रबाहुस्वामी भी करते हैं (प्रा०नि०, गा० १२४७)। कालभेद से तीन प्रकार का प्रतिक्रमण भी बतलाया है--(१) भूतकाल में लगे हुए दोषों को आलोचना करना, (२) संवर करके वर्तमान काल के दोषों से बचना और (३) प्रत्याख्यान द्वारा भविष्यत् दोषों को रोकना प्रतिक्रमण है (आ० पृ० ५५१ । उत्तरोत्तर आत्मा के विशेष शुद्ध स्वरूप में स्थित होने की इच्छा करनेवाले अधिकारियों को यह भी जानना चाहिये कि प्रतिक्रमण किस-किस का करना चाहिए-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) कषाय और (४) अप्रशस्त योग--- इन चार का प्रतिक्रमण करना चाहिए। अर्थात् मिथ्यात्व छोड़कर सम्यक्त्व को पाना चाहिए, अविरति का त्याग कर विरति को स्वीकार करना चाहिये, कषाय का परिहार करके क्षमा आदि गुण प्राप्त करना चाहिए और संसार बढ़ानेवाले व्यापारों को छोड़कर अात्म-स्वरूप की प्राप्ति करनी चाहिए । ___ सामान्य रीति से प्रतिक्रमण (१) द्रव्य और (२) भाव, यो दो प्रकार का है । भावप्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्यप्रतिक्रमण नहीं । द्रव्यप्रतिक्रमण वह है, जो दिखावे के लिए किया जाता है । दोष का प्रतिक्रमण करने के बाद भी फिर से उस दोष को बार बार सेवन करना, यह द्रव्य प्रतिक्रमण है। इससे आत्मा शुद्ध होने के बदले धिठाई द्वारा और भी दोषों की पुष्टि होती है । इस पर कुम्हार के बर्तनों को कंकर द्वारा बार-बार फोड़कर बार-बार माफी माँगनेवाले एक दुल्लकसाधु का दृष्टान्त प्रसिद्ध है । (५) धर्म या शुक्ल-ध्यान के लिए एकाग्र होकर शरीर पर से ममता का त्याग करना 'कायोत्सर्ग' है। कायोत्सर्ग को यथार्थ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन धर्म और दर्शन रूप में करने के लिए इस के दोषों का परिहार करना चाहिए। वे घोटक आदि दोष संक्षेप में उन्नीस हैं (श्रा.. नि०, गा० १५४६-१५४७) । ____ कायोत्सर्ग से देह की जड़ता और बुद्धि की जड़ता दूर होती है, अर्थात् वात आदि धातुओं की विषमता दूर होती है और बुद्धि की मन्दता दूर होकर विचारशक्ति का विकास होता है । सुख-दुःख तितिक्षा अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार के संयोगों में समभाव से रहने की शक्ति कायोत्सर्ग से प्रकट होती है । भावना और ध्यान का अभ्यास भी कायोत्सर्ग से ही पुष्ट होता है। अतिचार का चिन्तन भी कायोत्सर्ग में ठीक-ठीक हो सकता है । इस प्रकार देखा जाय तो कायोत्सर्ग बहुत महत्त्व की क्रिया है। कार्योत्सर्ग के अन्दर लिये जानेवाले एक श्वासोच्छास का काल-परिमाण श्लोक के एकपाद के उच्चारण के काल-परिमाण जितना कहा गया है । (६) त्याग करने को 'प्रत्याख्यान' कहते हैं । त्यागने योग्य वस्तुएँ (१) द्रव्य और (२) भावरूप से दो प्रकार की हैं । अन्न, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुएँ द्रव्यरूप हैं और अज्ञान, असंयम आदि वैभाविक परिणाम भावरूप हैं । अन्न, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुओं का त्याग अज्ञान, असंयम आदि के त्याग द्वारा भाव त्याग-पूर्वक और भावत्याग के उद्देश्य से ही होना चाहिये । जो द्रव्यत्याग भावत्याग पूर्वक तथा भावत्याग के लिए नहीं किया जाता, उस अात्मा को गुण-प्राप्ति नहीं होती। (१) श्रद्धान, (२) ज्ञान, (३) वंदन, . ४) अनुपालन, (५) अनुभाषण और (६) भाव, इन छः शुद्धियों के सहित किया जानेवाला प्रत्याख्यान शुद्ध प्रत्याख्यान है ( श्रा०, पृ०६४७), प्रत्याख्यान का दूसरा नाम गुण-धारण है, सो इसलिए कि उससे अनेक गुण प्राप्त होते हैं। प्रत्याख्यान करने से प्रास्त्रव का निरोध अर्थात् संवर होता है । संवर से तृष्या का नाश, तृष्णा के नाश से निरुपम समभाव और ऐसे समभाव से क्रमशः मोक्ष का लाभ होता है। क्रम की स्वाभाविकता तथा उपपत्ति—जो अन्तर्दृष्टि वाले हैं, उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य समभाव-सामायिक प्राप्त करना है। इसलिए उनके प्रत्येक व्यवहार में समभाव का दर्शन होता है। अन्तर्दृष्टि वाले जब किप्ती को समभाव की पूर्णता के शिखर पर पहुँचे हुए जानते हैं, तब वे उनके वास्तविक गुणों की स्तुति करने लगते हैं। इस तरह वे समभाव-स्थित साधु पुरुषों को वन्दन-नमस्कार करना भी नहीं भूलते । अन्तर्दृष्टिवालों के जीवन में ऐसी स्फूर्ति-अप्रमत्तता होती है कि कदाचित् वे पूर्ववासना-वश या कुसंसर्ग-वश समभाव से गिर जाएँ, तब भी उस अप्रमत्तता के कारण प्रतिक्रमण करके वे अपनी पूर्व-प्राप्त स्थिति को Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक क्रिया १८१ फिर पा लेते है और कभी-कभी तो पूर्व-स्थिति से आगे भी बढ़ जाते हैं। ध्यान ही श्राध्यात्मिक जीवन के विकास की कुंजी है। इसके लिए अन्तर्दृष्टि वाले बारबार ध्यान-कायोत्सर्ग किया करते हैं। ध्यान द्वारा चित्त-शुद्धि करते हुए वे आत्मस्वरूप में विशेषतया लीन हो जाते हैं। अतएव जड़ वस्तुओं के भोग का परित्यागप्रत्याख्यान भी उनके लिए साहजिक क्रिया है। इस प्रकार यह स्पष्ट सिद्ध है कि आध्यात्मिक पुरुषों के उच्च तथा स्वाभाविक जीवन का पृथक्करण ही 'आवश्यक-क्रिया' के क्रम का श्राधार है। जब तक सामायिक प्रास न हो, तब तक चतुर्विंशति-स्तव भावपूर्वक किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि जो स्वयं समभाव को प्राप्त नहीं है, वह समभाव में स्थित महात्मात्रों के गुणों को जान नहीं सकता और न उनसे प्रसन्न होकर उनकी प्रशंसा ही कर सकता है। इसलिए सामायिक के बाद चतुर्विंशतिस्तव है । चतुर्विशतिस्तव का अधिकारी वन्दन को यथाविधि कर सकता है। क्योंकि जिसने चौबीस तीर्थकरों के गुणों से प्रसन्न होकर उनकी स्तुति नहीं की है, वह तीर्थकरों के मार्ग के उपदेशक सद्गुरु को भावपूर्वक वन्दन कैसे कर सकता है। इसी से वन्दन को चतुर्विशतिस्तव के बाद रखा है। __ वन्दन के पश्चात् प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि आलोचना गुरु-समक्ष की जाती है। जो गुरु-वन्दन नहीं करता वह अालोचन का अधिकारी ही नहीं । गुरु-वन्दन के सिवाय की जानेवाली आलोचना नाममात्र की आलोचना है, उससे कोई साध्य-सिद्धि नहीं हो सकती। सच्ची आलोचना करनेवाले अधिकारी के परिणाम इतने नम्र और कोमल होते हैं कि जिससे वह आप ही आप गुरु के पैरों पर सिर नमाता है । ___कायोत्सर्ग की योग्यता प्रतिक्रमण कर लेने पर ही आती है। इसका कारण यह है कि जब तक प्रतिक्रमण द्वारा पाप की आलोचना करके चित्त-शुद्धि न की जाय, तब तक धर्म-ध्यान या शुक्लध्यान के लिए एकाग्रता संपादन करने का, जो कायोत्सर्ग का उद्देश्य है, वह किसी तरह सिद्ध नहीं हो सकता । अालोचना के द्वारा चित्त-शुद्धि किये बिना जो कायोत्सर्ग करता है, उसके मुँह से चाहे किसी शब्द-विशेष का जप हुआ करे, लेकिन उसके दिल में उच्च ध्येय का विचार कभी नहीं पाता । वह अनुभूत विषयों का ही चिन्तन किया करता है। ___ कायोत्सर्ग करके जो विशेष चित्त-शुद्धि, एकाग्रता और आत्मबल प्राप्त करता है, वही प्रत्याख्यान का सच्चा अधिकारी है। जिसने एकाग्रता प्राप्त नहीं की है और संकल्प-बल भी पैदा नहीं किया है, वह यदि प्रत्याख्यान कर भी ले तो मी उसका ठीक-ठीक निर्वाह नहीं कर सकता । प्रत्याख्यान सबसे ऊपर की 'श्रावश्यक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन धर्म और दर्शन किया' है । उसके लिए विशिष्ट चित्त-शुद्धि और विशेष उत्साह की दरकार है, जो कायोत्सर्ग किये बिना पैदा नहीं हो सकते। इसी अभिप्राय से कायोत्सर्ग के पश्चात् प्रत्याख्यान रखा गया है । इस प्रकार विचार करने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि छः 'आवश्यक' का जो क्रम है, वह विशेष कार्य-कारण-भाव की शृङ्खला पर स्थित है । उसमें उलट-फेर होने से उस की वह स्वाभाविकता नहीं रहती, जो कि उसमें है । 'आवश्यक-क्रिया' की आध्यात्मिका – जो क्रिया आत्मा के विकास को लक्ष्य में रख कर की जाती है, वही आध्यात्मिक क्रिया है । आत्मा के विकास का मतलब उस के सम्यक्त्व, चेतन, चारित्र यादि गुणों की क्रमशः शुद्धि करने से है । इस कसौटी पर कसने से यह अभ्रान्त रीति से सिद्ध होता है कि 'सामायिक' श्रादि छहों 'आवश्यक' आध्यात्मिक हैं। क्योंकि सामायिक का फल पापजनक व्यापार की निवृत्ति है, जो कि कर्म-निर्जरा द्वारा आत्मा के विकास का कारण है । चतुर्विंशतिस्तव का उद्देश्य गुणानुराम की वृद्धि द्वारा गुण प्राप्त करना है, जो कि कर्म- निर्जरा द्वारा आत्मा के विकास का साधन है । वन्दन-क्रिया के द्वारा विनय की प्राप्ति होती है, मान खण्डित होता है, गुरुजन की पूजा होती है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन होता है और श्रुतधर्म की आराधना होती है, जो कि अन्त में श्रात्मा के क्रमिक विकास द्वारा मोक्ष के कारण होते हैं । वन्दन करनेवालों को नम्रता के कारण शास्त्र सुनने का अवसर मिलता है। शास्त्र - श्रवण द्वारा क्रमशः ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान संयम, अनासव, तप, कर्मनाश, अक्रिया और सिद्धि ये फल बतलाए गए हैं ( श्र०नि०, गा० १२१५ तथा वृत्ति ) । इसलिए वन्दन क्रिया आत्मा के विकास का संदिग्ध कारण है । श्रात्मा वस्तुतः पूर्ण शुद्ध और पूर्ण बलवान् है, पर वह विविध वासनाओं के अनादि प्रवाह में पड़ने के कारण दोषों की अनेक तहों से दब-सा गया है; इसलिए जब वह ऊपर उठने का प्रयत्न करता है, तत्र उससे अनादि अभ्यासवश भूलें हो जाना सहज है । वह जब तब उन भूलों का संशोधन न करे, तब तक इष्ट सिद्धि हो ही नहीं सकती । इसलिए पद-पद पर की हुई भूलों को याद करके प्रतिक्रमण द्वारा फिर से उन्हें न करने के लिए वह निश्चय कर लेता है । इस तरह से प्रतिक्रमण क्रिया का उद्देश्य पूर्व दोषों को दूर करना और फिर से वैसे दोषों को न करने के लिए सावधान कर देना है, जिससे कि आत्मा दोष Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अावश्यक क्रियाः १८३ मुक्त हो कर धीरे-धीरे अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाय । इसी से प्रतिक्रमणक्रिया आध्यात्मिक है। कायोत्सर्ग चित्त की एकाग्रता पैदा करता है और आत्मा को अपना स्वरूप विचारने का अवसर देता है, जिससे प्रात्मा निर्भय बनकर अपने कठिनतम उद्देश्य को सिद्ध कर सकता है। इसी कारण कायोत्सर्ग-क्रिया भी आध्यात्मिक है। .. दुनियाँ में जो कुछ है, वह सब न तो भोगा ही जा सकता है और न भोगने के योग्य ही है तथा वास्तविक शान्ति अपरिमित भोग से भी सम्भव नहीं है । इसलिए प्रत्याख्यान-क्रिया के द्वारा मुमुत्तुगण अपने को व्यर्थ के भोगों से बचाते हैं और उसके द्वारा चिरकालीन प्रात्मा-शान्ति पाते है । अतएव प्रत्याख्यान क्रिया भी आध्यात्मिक ही है। ___ भाव-आवश्यक एक लोकोत्तर क्रिया है; क्योंकि वह लोकोत्तर (मोक्ष) के उद्देश्य से आध्यात्मिक लोगों के द्वारा उपयोग पूर्वक की जानेवाली क्रिया है । इसलिए पहिले उसका समर्थन लोकोत्तर ( शास्त्रीय व निश्चय ) दृष्टि से किया जाता है और पीछे व्यावहारिक दृष्टि से भी उसका समर्थन किया जाएगा । क्योंकि 'अावश्यक' है तो लोकोत्तर क्रिया, पर उसके अधिकारी व्यवहार-निष्ठ होते हैं। . जिन तत्त्वों के होने से ही मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों के जीवन से उच्च समझा जा सकता है और अन्त में विकास की पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है, वे तत्त्व ये हैं. --- (१) समभाव अर्थात् शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का संमिश्रण, (२) जीवन को विशुद्ध बनाने के लिए सर्वोपरि जीवनवाले महात्माओं को आदशरूप से पसन्द करके उनकी ओर सदा दृष्टि रखना, (३) गुणवानों का बहुमान व विनय करना, (४) कर्तव्य की स्मृति तथा कर्तव्य-पालन में हो जानेवाली गलतियों का अवलोकन करके निष्कपट भाव से उनका संशोधन करना और फिर से वैसी. गलतियाँ न हों, इसके लिए आत्मा को जागृत करना; (५) ध्यान का अभ्यास करके प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रीति से समझने के लिए विवेक-शक्ति का विकास करना और (६ त्याग-वृत्ति द्वारा संतोष व सहनशीलता को बढ़ाना । __ इन तत्वों के आधार पर आवश्यक-क्रिया का महल खड़ा है। इसलिए शास्त्र' -गुणवबहुमानादेनित्यस्मृत्या च सत्क्रिया। जातं न पातयेद्भावमजातं जनयेदपि ॥५॥ .. क्षायोपशमिकभावे या क्रिया क्रियते तया1 . पतितस्यापि तद्भावप्रवृद्धिर्जायते पुनः ॥६॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन धर्म और दर्शन कहता है कि 'आवश्यक क्रिया' श्रात्मा को प्राप्त भाव शुद्धि से गिरने नहीं देती, उसको पूर्व भाव भी प्राप्त कराती है तथा क्षायोपशिक-भाव-पूर्वक की जानेवाली क्रिया से पतित श्रात्मा की भी फिर से भाववृद्धि होती है । इस कारण गुणों की वृद्धि के लिए तथा प्राप्त गुणों से स्खलित न होने के लिए 'श्रावश्यक-क्रिया' का आचरण अत्यन्त उपयोगी है। व्यवहार में आरोग्य, कौटुम्बिक नीति, सामाजिक नीति इत्यादि विषय सम्मिलित हैं । आरोग्य के लिए मुख्य मानसिक प्रसन्नता चाहिए । यद्यपि दुनियाँ में ऐसे अनेक साधन हैं, जिनके द्वारा कुछ-न-कुछ मानसिक प्रसन्नता प्राप्त की जाती है, पर विचार कर देखने से यह मालूम पड़ता है कि स्थायी मानसिक प्रसन्नता उन पूर्वोक्त तत्त्वों के सिवाय किसी तरह प्राप्त नहीं हो सकती, जिनके ऊपर 'श्रावश्यकक्रिया' का आधार है । कौटुम्बिक नीति का प्रधान साध्य सम्पूर्ण कुटुम्ब को सुखी बनाना है । इसके लिए छोटे-बड़े सत्र में एक दूसरे के प्रति यथोचित विनय, आज्ञा-पालन, नियमशीलता और प्रमाद का होना जरूरी है । ये सब गुण 'श्रावश्यक-क्रिया' के आधारभूत पूर्वोक्त तत्त्वों के पोषण से सहज ही प्राप्त हो जाते हैं । सामाजिक नीति का उद्देश्य समाज को सुव्यवस्थित रखना है । इसके लिए विचार-शीलता, प्रामाणिकता, दीर्घदर्शिता और गम्भीरता आदि गुण जीवन में ने चाहिए, जो 'आवश्यक क्रिया' के प्राणभूत छह तत्त्वों के सिवाय किसी तरह सकते । नहीं इस प्रकार विचार करने से यह साफ जान पड़ता है कि शास्त्रीय तथा व्यवहारिक दोनों दृष्टि से 'श्रावश्यक क्रिया' का यथोचित अनुष्ठान परम लाभदायक है । प्रतिक्रमण शब्द की रूढ़ि - प्रतिक्रमण शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रति + क्रमण = प्रतिक्रमण' ऐसी है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार उसका अर्थ 'पीछे फिरना', इतना ही होता है, परन्तु रूढ़ि के बल से 'प्रतिकमण' शब्द सिर्फ चौथे 'श्रावश्यक' का तथा छह श्रावश्यक के समुदाय का भी बोध कराता है । अन्तिम अर्थ में उस शब्द की प्रसिद्धि इतनी अधिक हो गई गुणवृद्धया ततः कुर्यात्क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं जिनानामवतिष्ठते ||७|| -- ज्ञानसार, क्रियाष्टक | Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक क्रिया १८५ है कि आजकल 'श्रावश्यक' शब्द का प्रयोग न करके सब कोई छहों आवश्यकों के लिए 'प्रतिक्रमण' शब्द काम में लाते हैं । इस तरह व्यवहार में और अर्वाचीन अन्थों में 'प्रतिक्रमण' शब्द इस प्रकार से 'आवश्यक' शब्द का पर्याय हो गया है। प्राचीन ग्रन्थों में सामान्य 'श्रावश्यक' अर्थ में 'प्रतिक्रमण' शब्द का प्रयोग कहीं देखने में नहीं आया । 'प्रतिक्रमणहेतुगर्भ', 'प्रतिक्रमण विधि', 'धर्मसंग्रह' आदि अर्वाचीन ग्रन्थों में 'प्रतिक्रमण' शब्द सामान्य 'आवश्यक' के अर्थ में प्रयुक्त है और सर्वसाधारण भी सामान्य 'श्रावश्यक' के अर्थ में प्रतिक्रमण शब्द का प्रयोग अस्खलित रूप से करते हुए देखे जाते हैं। 'प्रतिक्रमण' के अधिकारी और उसकी रीति पर विचार इस जगह 'प्रतिक्रमण' शब्द का मतलब सामान्य 'श्रावश्यक' अर्थात् छ: 'आवश्यकों से है । यहाँ उसके संबन्ध में मुख्य दो प्रश्नों पर विचार करना है। (१) 'प्रतिक्रमण' के अधिकारी कौन हैं ? (२) 'प्रतिक्रमण'-विधान की जो रीति प्रचलित है, वह शास्त्रीय तथा युक्तिसंगत है या नहीं ? . प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि साधु और श्रावक दोनों 'प्रतिक्रमण' के अधिकारी हैं; क्योंकि शास्त्र में साधु और श्रावक दोनों के लिए सायंकालीन और प्रातःकालीन अवश्य कर्तव्य-रूप से 'प्रतिक्रमण' का विधान' है और अतिचार आदि प्रसंगरूप कारण हो या नहीं, पर प्रथम और चरम तीर्थकर के 'शासन' में 'प्रतिक्रमण' सहित ही धर्म बतलाया गया है । दूसरा प्रश्न साधु तथा श्रावक-दोनों के प्रतिक्रमण' रीति से संबन्ध रखता है। सब साधुओं को चारित्र-विषयक क्षयोपशम न्यूनाधिक भले ही हो, पर सामान्य रूप से वे सर्व विरतिवाले अर्थात् पञ्च महाव्रत को त्रिविध-त्रिविध पूर्वक धारण करने वाले होते हैं। अतएव उन सबको अपने पञ्च महाव्रत में लगे हुए अतिचारों के संशोधन रूप से आलोचना या 'प्रतिक्रमण' नामक चौथा 'आवश्यक' समान रूप से करना चाहिए और उसके लिए सत्र साधनों को समान ही पालोचना सूत्र पढ़ना चाहिए, जैसा कि वे पढ़ते हैं। पर श्रावकों के संबंध में तर्क १—समणेण सावएण य, अवस्सकायच्वयं हवइ जम्ही । अन्ते अहोणिसस्स य तम्हा श्रावस्सयं नाम ।।२।। -आवश्यक-वृत्ति, पृष्ठ ५३ । २.--सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिएस्स ! मझिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥१२४४॥ -श्रावश्यक नियुक्ति । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और दर्शन पैदा होता है। वह यह है कि श्रावक अनेक प्रकार के होते हैं। कोई केवल सम्यक्त्व वाला--अव्रती होता है, कोई व्रती होता है । इस प्रकार किसी को अधिक से अधिक बारह तक व्रत होते हैं और सल्लेखना भी । व्रत भी किसी को द्विविधत्रिविध से, किसी को एकविध-त्रिविध से, किसी को एकविध-विविध से इत्यादि नाना प्रकार का होता है । अतएव श्रावक विविध अभिग्रह वाले कहे गए हैं ( आवश्यक नियुक्ति गा० १५५८ आदि)। भिन्न अभिग्रह वाले सभी श्रावक चौथे 'श्रावश्यक' के सिवाय शेष पाँच 'श्रावश्यक' जिस रीति से करते हैं और इसके लिए जो-जो सूत्र पढ़ते हैं इस विषय में तो शङ्का को स्थान नहीं है; पर वे चौथे 'श्रावश्यक' को जिस प्रकार से करते हैं और उसके लिए जिस सूत्र को पढ़ते हैं, उसके विषय में शङ्का अवश्य होती है। वह यह कि चौथा 'श्रावश्यक' अतिचार-संशोधन-रूप है। ग्रहण किये हुए व्रत-नियमों में ही अतिचार लगते हैं। ग्रहण किये हुए व्रत-नियम सब के समान नहीं होते। अतएव एक ही 'वन्दित्तु' सूत्र के द्वारा सभी श्रावक-चाहे व्रती हों या अवती--सम्यक्त्व, बारह व्रत तथा संलेखना के अतिचारों का जो संशोधन करते हैं, वह न्याय-संगत कैसे कहा जा सकता है ? जिसने जो व्रत ग्रहण किया हो, उसको उसी व्रत के अतिचारों का संशोधन 'मिच्छामि दुक्कड' आदि द्वारा करना चाहिए । ग्रहण नहीं किए हुए व्रतों के गुणों का विचार करना चाहिए और गुण-भावना द्वारा उन व्रतों के स्वीकार करने के लिए आत्म-सामर्थ्य पैदा करना चाहिए । ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के अतिचार का संशोधन यदि युक्त समझा जाय तो फिर श्रावक के लिए पञ्च 'महाव्रत' के अतिचारों का संशोधन भी युक्त मानना पड़ेगा । ग्रहण किये हुए या ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के संबन्ध में श्रद्धा-विपर्यास हो जाने पर 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि द्वारा उस का प्रतिक्रमण करना, यह तो सब अधिकारियों के लिए समान है। पर यहाँ जो प्रश्न है, वह अतिचार-संशोधन रूप प्रतिक्रमण के संबन्ध का ही है अथात् ग्रहण नहीं किये हुए व्रत नियमों के अतिचार-संशोधन के उस-उस सूत्रांश को पढ़ने की और 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि द्वारा प्रतिक्रमण करने की जो रोति प्रचलित है, उसका आधार क्या है ? _इस शङ्का का समाधान इतना ही है कि अतिचार संशोधन-रूप 'प्रतिक्रमण' तो ग्रहण किये हुए व्रतों का ही करना युक्ति-संगत है और तदनुसार ही सूत्रांश पढ़कर 'मिच्छामि दुक्कड़े' आदि देना चाहिए । ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के संबन्ध में श्रद्धा-विपर्यास का · 'प्रतिक्रमण' भले ही किया जाए, पर अतिचारसंशोधन के लिए उस-उस सूत्रांश को पढ़कर 'मिच्छामि दुक्कडं' आदि देने की Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक किया १८७ अपेक्षा उन व्रतों के गुणों की भावना करना तथा उन व्रतों को धारण करनेवाले उच्च श्रावकों को धन्यवाद देकर गुणानुराग पुष्ट करना ही युक्ति-संगत है । प्रश्न यह है कि जब ऐसी स्थिति है, तब व्रती अवती, छोटे-बड़े सभी rasों में एक ही 'वंदित्तु' सूत्र के द्वारा समान रूप से प्रतिचार का संशोधन करने की जो प्रथा प्रचलित है, वह कैसे चल पड़ी है ? इसका खुलासा यह जान पड़ता है कि प्रथम तो सभी को 'आवश्यक' सूत्र पूर्णतया याद नहीं होता । और अगर याद भी हो, तब भी साधारण अधिकारियों के लिए केले की अपेक्षा समुदाय में ही मिलकर 'आवश्यक' करना लाभदायक माना गया है। तीसरे जब कोई सबसे उच्च श्रावक अपने लिए सर्वथा उपर्युक्त सम्पूर्ण 'वंदित्तु' सूत्र पढ़ता है, तत्र प्राथमिक और माध्यमिक सभी अधिकारियों के लिए उपयुक्त वह वह सूत्रांश भी उसमें आ ही जाता है। इन कारणों से ऐसी समुदायिक प्रथा पड़ी है कि एक व्यक्ति सम्पूर्ण 'वंदित्तु' सूत्र पढ़ता है और शेष श्रावक उच्च अधिकारी श्रावक का अनुकरण करके सत्र व्रतों के संबन्ध में तिचार का संशोधन करने लग जाते हैं। इस समुदायिक प्रथा के रूढ़ हो जाने के कारण जब कोई प्राथमिक या माध्यमिक श्रावक अकेला प्रतिक्रमण करता है, तब भी वह 'बंदित्तु' सूत्र को सम्पूर्ण ही पढ़ता है और ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के अतिचार का भी संशोधन करता है । इस प्रथा के रूढ़ जो जाने का एक कारण यह और भी मालूम पड़ता है कि सर्वसाधारण में विवेक की यथेष्ट मात्रा नहीं होती । इसलिए 'वंदित्तु' सूत्र में से अपने-अपने लिए उपयुक्त सूत्रांशों को चुनकर बोलना और शेष सूत्रांशों को छोड़ देना, यह काम सर्वसाधारण के लिए जैसा कठनि है, वैसा ही विषमता तथा गोलमाल पैदा करनेवाला भी है । इस कारण यह नियम रखा गया है कि जब सभा को या किसी एक व्यक्ति को 'पच्चक्खाण' कराया जाता है, तब ऐसा सूत्र पढ़ा जाता है कि जिसमें अनेक 'पच्चक्खाणों' का समावेश हो जाता है, जिससे तभी अधिकारी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार पच्चकखाण' कर लेते हैं । इस दृष्टि से यह कहना पड़ता है कि 'वंदितु' सूत्र अखण्डित रूप से पढ़ना न्याय व शास्त्र - संगत है । रही अतिचार-संशोधन में विवेक करने की बात, सो उसको विवेकी अधिकारी खुशी से कर सकता है। इसमें प्रथा बाधक नहीं है । १——अखण्डं सूत्रं पठनीयमिति न्यायात् धर्मसंग्रह, पृष्ठ २२३ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और दर्शन 'प्रतिक्रमण' पर होने वाले आक्षेप और उनका परिहार 'आवश्यक-क्रिया' की उपयोगिता तथा महत्ता नहीं समझनेवाले अनेक लोग उस पर आक्षेप किया करते हैं । वे श्राक्षेप मुख्य चार हैं। पहला समय का, दूसरा अर्थ- ज्ञान का, तीसरा भाषा का और चौथा रुचि का । (१) कुछ लोग कहते हैं कि 'आवश्यक-क्रिया' इतनी लम्बी और बेसमय की है कि उसमें फँस जाने से घूमना-फिरना और विश्रान्ति करना कुछ भी नहीं होता । इससे स्वास्थ्य और स्वतन्त्रता में बाधा पड़ती है । इसलिए 'आवश्यक - क्रिया' में फँसने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा कहनेवालों को समझना चाहिए कि साधारण लोग प्रमादशील और कर्त्तव्य-ज्ञान से शून्य होते हैं । इसलिए जब उनको कोई खास कर्त्तव्य करने को कहा जाता है, तब वे दूसरे कर्त्तव्य की महत्ता दिखाकर पहले कर्तव्य से अपना पिण्ड छुड़ा लेते हैं और अन्त में दूसरे कर्त्तव्य को भी छुड़ा देते हैं। घूमने-फिरने आदि का बहाना निकालनेवाले वास्तव में आलसी होते हैं । अतएव वे निरर्थक बात, गपोड़े आदि में लग कर 'आवश्यक - क्रिया' के साथ धीरे-धीरे घूमना-फिरना और विश्रान्ति करना भी भूल जाते हैं । इसके विपरीत जो श्रप्रमादी तथा कर्त्तव्यज्ञ होते हैं, वे समय का यथोचित उपयोग करके स्वास्थ्य के सब नियमों का पालन करने के उपरान्त 'श्रावश्यक' श्रादि धार्मिक क्रियाएँ को करना नहीं भलते । जरूरत सिर्फ प्रमाद के त्याग करने की और कर्त्तव्य का ज्ञान करने की है । १५ । ऐसा आक्षेप करने (२) दूसरे कुछ लोग कहते हैं कि 'श्रावश्यक क्रिया' करनेवालों में से अनेक लोग उसके सूत्रों का अर्थ नहीं जानते । वे तोते की तरह ज्यों का त्यों सूत्र मात्र पढ़ लेते हैं । अर्थ ज्ञान न होने से उन्हें उस क्रिया में रस नहीं आता है अतएव वे उस क्रिया को करते समय या तो सोते रहते या कुतूहल आदि से मन बहलाते हैं । इसलिए 'आवश्यक - क्रिया' में फँसना बन्धन मात्र वालों के उक्त कथन से ही यह प्रमाणित होता है कि यदि अर्थ-ज्ञान- पूर्वक 'आवश्यक क्रिया' की जाय तो सफल हो सकती है। शास्त्र भी यही बात कहता है । उसमें उपयोग पूर्वक क्रिया करने को कहा है। उपयोग ठीक-ठीक तभी रह सकता है, जब कि अर्थ-ज्ञान हो, ऐसा होने पर भी यदि कुछ लोग अर्थ बिना समझे 'श्रावश्यक क्रिया' करते हैं और उससे पूरा लाभ नहीं उठा सकते तो उचित यही है कि ऐसे लोगों को अर्थ का ज्ञान हो, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए । ऐसा न करके मूल 'आवश्यक' वस्तु को ही अनुपयोगी समझना तो ऐसा है जैसा कि विधि न जानने से किंवा विधिपूर्वक सेवन करने से फायदा न देखकर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आवश्यक क्रिया १८६ कीमती रसायन को अनुपयोगी समझना । प्रयत्न करने पर भी वृद्ध अवस्था, मतिमन्दता श्रादि कारणों से जिनको अर्थ ज्ञान न हो सके, अन्य किसी ज्ञानी के आश्रित होकर ही धर्म-क्रिया करके उससे फायदा उठा सकते हैं। व्यवहार में भी अनेक लोग ऐसे देखे जाते हैं, जो ज्ञान की कमी के कारण अपने काम को स्वतन्त्रा से पूर्णतापूर्वक नहीं कर सकते, वे किसी के आश्रित हो कर ही काम करते हैं और उससे फायदा उठाते हैं । ऐसे लोगों की सफलता का कारण मुख्यतया उनकी श्रद्धा ही होती है। श्रद्धा का स्थान बुद्धि से कम नहीं है । अर्थ-ज्ञान होने पर भी धार्मिक क्रियायों में जिनको श्रद्धा नहीं हैं, वे उन से कुछ भी फायदा नहीं उठा सकते । इसलिए श्रद्धापूर्वक धार्मिक क्रिया करते रहना और भरसक उसके सूत्रों का अर्थ भी जान लेना, यही उचित है । (३) अनेक लोग ऐसा कहते हैं कि 'आवश्यक क्रिया' के सूत्रों की रचना जो संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन शास्त्रीय भाषा में है, इसके बदले वह प्रचलित लोक भाषा में ही होना चाहिए। जब तक ऐसा न हो तब तक 'श्रावश्यक-क्रिया' विशेष उपयोगी नहीं हो सकती। ऐसा कहनेवाले लोग मन्त्रों की शाब्दिक महिमा तथा शास्त्रीय भाषाओं की गम्भीरता, भावमयता, ललितता आदि गुण नहीं जानते । मन्त्रों में आर्थिक महत्त्व के उपरान्त शाब्दिक महत्त्व भी रहता है, जो उनको दूसरी भाषा में परिवर्तन करने से लुप्त हो जाता है । इसलिए जो-जो मन्त्र जिस-जिस भाषा में बने हुए हों, उनको उसी भाषा में रखना ही योग्य है । मन्त्रों को छोड़कर अन्य सूत्रों का भाव प्रचलित लोक भाषा में उतारा जा सकता है, पर उसकी वह खूबी कभी नहीं रह सकती, जो कि प्रथमकालीन भाषा में है । 'आवश्यक - क्रिया' के सूत्रों को प्रचलित लोक भाषा में रचने से प्राचीन महत्त्व के साथ-साथ धार्मिक क्रिया कालीन एकता का भी लोप हो जाएगा और सूत्रों की रचना भी अनवस्थित हो जाएगी । अर्थात् दूर-दूर देश में रहनेवाले एक धर्म के अनुयायी जब तीर्थ आदि स्थान में इकट्ठे होते हैं, तब श्राचार, विचार, भाषा, पहनाव आदि में भिन्नता होने पर भी वे सब धार्मिक क्रिया करते समय एक ही सूत्र पढ़ते हुए और एक ही प्रकार की विधि करते हुए पूर्ण एकता का अनुभव करते हैं। यह एकता साधारण नहीं है । उसको बनाए रखने के लिए धार्मिक क्रियाओं के सूत्रपाठ आदि को शास्त्रीय भाषा में कायम रखना बहुत जरूरी है । इसी तरह धार्मिक क्रियाओं के सूत्रों की रचना प्रचलित लोकभाषा में होने लगेगी तो हर जगह समय-समय पर साधारण कवि भी अपनी कवित्व शक्ति का उपयोग नए-नए सूत्रों को रचने में करेंगे । इसका परिणाम यह होगा कि एक ही प्रदेश में जहाँ की भाषा एक है, अनेक कर्त्ताओं के अनेक सूत्र Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन धर्म और दर्शन हो जाएँगे और विशेषता का विचार न करनेवाले लोगों में जिसके मन में जो श्राया, वह उसी कर्ता के सूत्रों को पढ़ने लगेगा। जिससे अपूर्व भाववाले प्राचीन सूत्रों के साथ-साथ एकता का भी लोप हो जाएगा। इसलिए धार्मिक क्रिया के सूत्र-पाठ श्रादि जिस-जिस भाषा में पहले से बने हुए हैं, वे उस-उस भाषा में ही पढ़े जाने चाहिए । इसी कारण वैदिक, बौद्ध आदि सभी सम्प्रदायों में 'संध्या' आदि नित्य कर्म प्राचीन शास्त्रीय भाषा में ही किये जाते हैं । यह ठीक है कि सर्वसाधारण की रुचि बढ़ाने के लिए प्रचलित लोक-भाषा की भी कुछ कृतियाँ ऐसी होनी चाहिए, जो धार्मिक क्रिया के समय पढ़ी जाएँ । इसी बात को ध्यान में रखकर लोक-रुचि के अनुसार समय-समय पर संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं में स्तोत्र, स्तुति, सज्झाय, स्तवन आदि बनाए हैं और उनको 'श्रावश्यक-क्रिया में स्थान दिया है। इससे यह फायदा हुआ कि प्राचीन सूत्र तथा उनका महत्त्व ज्यों का त्यों बना हुआ है और प्रचलित लोक-भाषा को कृतियों में साधारण जनता की रुचि भी पुष्ट होती रहती है। (४) कितने लोगों का यह भी कहना है कि 'श्रावश्यक निया' अरुचिकर है-उसमें कोई रस नहीं पाता । ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि रुचि या अरुचि बाह्म वस्तु का धर्म नहीं है; क्योंकि कोई एक चीज सबके लिए रुचिकर नहीं होती। जो चीज एक प्रकार के लोगों के लिए रुचिकर है, वही दूसरे प्रकार के लोगों के लिए अरुचिकर हो जाती है। रुचि, यह अन्तःकरण का धर्म है। किसी चीज के विषय में उसका होना न होना उस वस्तु के ज्ञान पर अवलम्बित है । जब मनुष्य किसी वस्तु के गुणों को ठीक-ठीक जान लेता है, तब उसकी उस वस्तु पर प्रबल रुचि हो जाती है । इसलिए 'श्रावश्यक क्रिया' को अरुचिकर बतलाना, यह उसके महत्त्व तथा गुणों का श्रज्ञान-मात्र है। जैन और अन्य सम्प्रदायों का 'आवश्यक-कर्म'- सन्ध्या आदि ___'आवश्यक-क्रिया' के मूल तत्त्वों को दिखाते समय यह सूचित कर दिया गया है कि सभी अन्तदृष्टि वाले आत्माओं का जीवन सम-भावमय होता है । अत्तहदि किसी खास देश या खास काल की शृङ्खला में प्राबद्ध नहीं होती । उसका आविर्भाव सब देश और सब काल के प्रात्मानों के लिए साधारण होता है । अतएव उसको पाना तथा बढ़ाना सभी प्राध्यात्मिकों का ध्येय बन जाता है। प्रकृति, योग्यता और निमित्त-भेद के कारण इतना तो होना स्वाभाविक है कि किसी देश-विशेष, किसी काल-विशेष और किसी व्यक्ति-विशेष में अन्तर्ड ष्टि का विकास कम होता है और किसी में अधिक होता है । इसलिए आध्यात्मिक जीवन Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक क्रिया १६१ को ही वास्तविक जीवन समझनेवाले तथा उस जीवन की वृद्धि चाहनेवाले सभी सम्प्रदाय के प्रवर्तकों ने अपने-अपने अनुयायियों को आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने का, उस जीवन के तत्त्वों का तथा उन तत्वों का अनुसरण करते समय जानते-अनजानते हो जानेवाली गलतियों को सुधार कर फिर से वैसा न करने का उपदेश दिया है। यह हो सकता है कि भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय प्रवर्तकों की कथन-शैली भिन्न हो, भाषा भिन्न हो और विचार में भी न्यूनाधिकता हो; पर यह कदापि संभव नहीं कि आध्यात्मिक जीवन-निष्ठ उपदेशकों के विचार का मूल एक न हो । इस जगह 'श्रावश्यक-फिया' प्रस्तुत है । इसलिए यहाँ सिर्फ उस के संबन्ध में ही भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों का विचार-साम्य दिखाना उपयुक्त होगा। यद्यपि सब प्रसिद्ध सम्प्रदायों की सन्ध्या का थोड़ा बहुत उल्लेख करके उनका विचार-साम्य दिखाने का इरादा था; पर यथेष्ट साधन न मिलने से इस समय थोड़े में ही संतोष कर लिया जाता है। यदि इतना भी उल्लेख पाठकों को रुचिकर हुआ तो वे स्वयं ही प्रत्येक सम्प्रदाय के मूल ग्रन्थों को देखकर प्रस्तुत विषय में अधिक जानकारी कर लेंगे। यहाँ सिर्फ जैन, बौद्ध, वैदिक और जरथोश्ती अर्थात् पारसी धर्म का वह विचार दिखाया जाता है। बौद्ध लोग अपने मान्य 'त्रिपिटक' ग्रन्थों में से कुछ सूत्रों को लेकर उनका नित्य पाठ करते हैं । एक तरह से वह उनका अवश्य कर्त्तव्य है। उसमें से कुछ वाक्य और उनसे मिलते-जुलते 'प्रतिक्रमण के वाक्य नीचे दिये जाते हैंबौद्धः- (१) नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा संबुद्धस्स । बुद्धं सरणं गच्छामि । धम्म सरणं गच्छामि । संधं सरणं गच्छामि । -लघुपाठ, सरणत्तय । (२) पाणातिपाता वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । अदिन्नादाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । कामेसु मिच्छाचारा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । मुसाबादा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । सुराभेरयमज्जपमादवाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । -लघुपाठ, पंचसील । (३) असेवना च बालानं पण्डितानं च सेवना । पूजा च पूजनीयानं एतं मंगलमुत्तमं ।। मातापितु उपट्टानं पुत्तदारस्स . संगहो । अनाकुला च कम्मन्ता एतं मंगलमुत्तमं ।। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैन धर्म और दर्शन दानं च धम्मचरिया च जातकानं च संगहो । अनवज्जानि कम्मानि एतं मंगलमुत्तमं । श्रारति विरति पापा मज्जपाना च संयमो। अप्पमादो च धम्मेसु एतं मंगलमुत्तमं ॥ खन्ति च सोवचस्सता, समणानं च दस्सनं । कालेन धम्मसाकच्छा एतं मंगलमुत्तमं ।। - लघुपाठ, मंगलसुत्त । (४) सुखिनो वा खेमिनो होन्तु सब्वे सत्ता भवन्तु सुखिनत्ता ।। माता यथा नियं पुत्तं आयुसा एकपुत्तमनुरक्खे। एवंपि सवभतेसु मानसं भावये अपरिमाणं ।। मेत्तं च सव्वलोकस्मिन् मानसं भावये अपरिमाणं । उद्धं अधो च तिरियं च असंबाधं अवेरं असपतं ।। -लघुपाठ, मेतसुत्त (१)। जैन (१) नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं । चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहन्ते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलीपण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि !! (२) थूलगपाणाइवायं समणोवासो पच्चक्खाई, थूलगमुसावायं समणोवासो पच्चक्खाई, थूलगअदत्तादाणं समणोवासो पञ्चक्खाइ, परदारगमणं समणोवासो पञ्चक्खाई, सदारसंतोसं वा पडिवजइ । इत्यादि । --आवश्यक सूत्र, पृ० ८१८-८२३ । (३) लोगविरुद्धच्चाओ, गुरुजणपूा परत्थकरणं च । सुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा आभवमखंडा || दुक्खखत्रो कम्मखो, समाहिमरणं च बोहिलाभो । संपज्जउ मह एयं, तुह नाह पणामकरणेणं ।। -जय वीयराय । (४) मित्ती में सब्चभूएस, वेरं मझ न केणई ।। शिवमस्तु सर्वजगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः। . दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक क्रिया २६३ वैदिक सन्ध्या के मन्त्र व बाक्य(१) “ममोपात्तदुरितक्षयाय श्रीपरमेश्वरप्रीतये प्रातः सन्ध्योपासनमहं करिष्ये ।" -~-संकल्प-वास्य । (२) ऊँ सूर्यश्च मा मनुश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद् राव्या पापमकार्ष मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु यत् किंचिद दुरितं मयीदमहममृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा । -कृष्ण यजुर्वेद । (३) ॐ तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो नः प्रचोदयेत् । ---गायत्री। जैन-- (१) पायच्छित्त विसोहणत्थं करेमि काउस्सग्गं । (२) जं जं मणेण बद्धं, जं जं वारण भासियं पावं । जं जं काएण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स ।। (३) चन्देसु निम्मलयरा, श्राइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगम्भीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसन्तु ।। पारसी लोग नित्यप्रार्थना तथा नित्यपाठ में अपनी असली धार्मिक किताब 'अवस्ता' का जो-जो भाग काम में लाते हैं, वह 'खोरदेह अवस्ता' के नाम से प्रसिद्ध है। उसका मजमन अनेक अंशों में जैन, बौद्ध तथा वैदिक-संप्रदाय में प्रचलित सन्ध्या के समान है । उदाहरण के तौर पर उसका थोड़ा सा अंश हिंदी भाषा में नीचे दिया जाता है। ___ अवस्ता के मूल वाक्य इसलिए नहीं उद्धृत किए हैं कि उसके खास अक्षर ऐसे हैं, जो देवनागरी लिपि में नहीं हैं। विशेष जिज्ञासु मूल पुस्तक से 'असली पाठ देख सकते हैं। (१) दुश्मन पर जीत हो। -खोरदेह अवस्ता, पृ०७॥ (२) मैंने मन से जो बुरे विचार किये, जबान से जो तुच्छ भाषण किया और शरीर से जो हलका काम किया; इत्यादि प्रकार से जो-जो गुनाह किये, उन सत्र के लिए मैं पश्चात्ताप करता हूँ। —खो० अ०, पृ० ७॥ (३) वर्तमान और भावी सब धर्मों में सब से बड़ा, सब से अच्छा और Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 जैन धर्म और दर्शन सर्व-श्रेष्ठ धर्म 'जरथोश्ती' है। मैं यह बात मान लेता हूँ कि 'जरथोश्ती' धर्म ही सब कुछ पाने का कारण है / (4) अभिमान, गर्व, मरे हुए लोगों की निन्दा करना. लोभ, लालच, बेहद गुस्सा, किसी की बढ़ती देखकर जलना, किसी पर बुरी निगाह करना, स्वच्छन्दता, आलस्य, काना-फूसी, पवित्रता का भङ्ग, झूठी गवाही, चोरी, लूट-खसोट, व्यभिचार, बेहद शौक करना, इत्यादि जो गुनाह मुझसे जानते-अनजानते हो गए हों और जो गुनाह साफ दिल से मैंने प्रकट न किये हों, उन सबसे मैं पवित्र हो कर अलग होता हूँ। -खो० अ०, पृ० 23-24 / (1) शत्रवः पराङ्मुखः भवन्तु स्वाहा / --वृहत् शान्ति। (2) काएण काइयस्स, पडिक्कमे वाइयस्स वायाए / मणसा माणसियस्स, सव्वस्स वयाइयारस्स / / (3) सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् / प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् // (4) अठारह पापस्थान की निन्दा | ___ 'आवश्यक' का इतिहास 'आवश्यक-क्रिया'- अन्तर्दृष्टि के उन्मेष व आध्यात्मिक जीवन के प्रारम्भ से 'आवश्यक-क्रिया' का इतिहास शुरू होता है। सामान्यरूप से यह नहीं कहा जा सकता कि विश्व में आध्यात्मिक जीवन सबसे पहले कब शुरू हुआ। इस लिए 'श्रावश्यक-क्रिया भी प्रवाह की अपेक्षा से अनादि ही मानी जाती है। 'आवश्यक-सूत्र-जो व्यक्ति सच्चा आध्यात्मिक है, उसका जीवन स्वभाव से ही 'आवश्यक-क्रिया'-प्रधान बन जाता है। इसलिए उसके हृदय के अन्दर अवस्था हो, तब तक व्यावहारिक, धार्मिक-सभी प्रवृत्ति करते समय प्रमादवश 'श्रावश्यक-क्रिया' में से उपयोग बदल जाने का और इसी कारण ताद्विषयक अन्तर्ध्वनि भी बदल जाने का बहुत संभव रहता है। इसलिए ऐसे अधिकारियों को लक्ष्य में रखकर 'आवश्यक-क्रिया' को याद कराने के लिए महर्षियों ने खास-खास समय नियत किया है और 'आवश्यक-क्रिया' को याद करानेवाले Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक क्रिया 165 सूत्र भी रचे हैं, जिससे कि अधिकारी लोग खास नियत समय पर उन सूत्रों के द्वारा 'श्रावश्यक-क्रिया' को याद कर अपने आध्यात्मिक जीवन पर दृष्टिपात करें / अतएव 'आवश्यक क्रिया के दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, आदि पाँच भेद प्रसिद्ध हैं। 'आवश्यक-क्रिया' के इस काल-कृत विभाग के अनुसार उसके सूत्रों में भी यत्र-तत्र भेद आ जाता है / अब देखना यह है कि इस समय जो 'श्रावश्यक-सूत्र' है, वह कब बना है और उसके रचयिता कौन हैं ? पहले प्रश्न का उत्तर यह है कि 'श्रावश्यक-सूत्र' ईस्वी सन् से पूर्व पाँचवीं शताब्दि से लेकर चौथी शताब्दि के प्रथम पाद तक में किसी समय रचा हुश्रा होना चाहिए / इसका कारण यह है कि ईस्वी सन् से पूर्व पाँच सौ छब्बीसवें वर्ष में भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ | वीर-निर्वाण के बीस वर्ष बाद सुधर्मा स्वामी का निवाण हुआ। सुधर्मा स्वामी गणधर थे / 'श्रावश्यक-सूत्र' न तो तीर्थंकर की ही कृति है और न गणधर की। तीर्थकर की कृति इसलिए नहीं कि वे अर्थ का उपदेशमात्र करते हैं, सूत्र नहीं रचते / गणधर सूत्र रचते हैं सही, पर 'श्रावश्यक-सूत्र' गणधर-रचित न होने का कारण यह कि उस सूत्र की गणना अङ्गबाह्यश्रुत में है। अङ्ग बाह्यश्रुत का लक्षण श्री उमास्वाती ने अपने तत्त्वार्थ-भाष्य में यह किया है कि जो श्रत, गणधर की कृति नहीं है और जिसकी रचना गणधर के आद के परम मेधावी आचार्यों ने की है, वह 'अङ्गबाह्यश्रुत' कहलाता है / ' ऐसा लक्षण करके उसका उदाहरण देते समय उन्होंने सबसे पहले सामायिक आदि छह 'आवश्यकों' का उल्लेख किया है और इसके बाद दशवैकालिक आदि अन्य सूत्रों का / यह ध्यान रखना चाहिए दशवैकालिक, श्री शय्यंभव सूरि जो सुधर्मा स्वामी के बाद तीसरे श्राचार्य हुए, उनकी कृति है / अङ्गबाह्य होने के कारण 'आवश्यक-सूत्र', गणधर श्री सुधर्मा स्वामी के बाद के किसी आचार्य का रचित माना जाना चाहिए। इस तरह उसके रचना के काल की 1- गणधरानन्तर्यादिभिस्त्वत्यन्तविशुद्धागमैः परमप्रकृष्टवाङ्मतिशक्तिभिराचार्य: कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहान यत्प्रोक्तं तदङ्गबाह्यमिति / --तत्त्वाथे-अध्याय१, सूत्र 20 का भाष्य / २--अङ्गबाह्यमनेकविधम् / तद्यथा—सामायिक चतुर्विंशतिस्तवो वन्दनं प्रति. क्रमणं कायव्युत्सर्गः प्रत्याख्यानं दशकालिकमुत्तराध्यायाः दशाः कल्पव्यवहारौ निशीथमृषिभाषितान्येवमादि / --तत्वार्थ-अ- 1, सूत्र 20 का भाष्य / Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 __जैन धर्म और दर्शन पहली मियाद अधिक से अधिक ईस्वी सन् से पहिले लगभग पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक ही बताई जा सकती है। उसके रचना काल की उत्तर अवधि अधिक से अधिक ईस्वी सन् से पूर्व चौथी शताब्दी का प्रथम चरण ही माना जा सकता है; क्योंकि चतुर्दश-पूर्व-धर श्री भद्रबाहु स्वामी जिनका अवसान ईस्वी सन् से पूर्व तीन सौ छप्पन वर्ष के लगभग माना जाता है, उन्होंने 'आवश्यकसूत्र' पर सबसे पहले व्याख्या लिखी है, जो नियुक्ति के नाम से प्रसिद्ध है। यह तो प्रसिद्ध है कि नियुक्ति हो श्री भद्रबाहु की है, संपूर्ण मूल 'श्रावश्यक-सूत्र नहीं। ऐसी अवस्था में मूल 'श्रावश्यक-सूत्र' अधिक से अधिक उनके कुछ पूर्ववर्ती या समकालीन किसी अन्य श्रुतधर के रचे हुए मानने चाहिए / इस दृष्टि से यही मालूम होता है कि 'आवश्यक' का रचना-काल ईस्वी सन् से पूर्व पाँचवीं शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी के प्रथम चरण तक में होना चाहिए / दूसरा प्रश्न कर्ता का है / 'आवश्यक-सूत्र' के कर्ता कौन व्यक्ति हैं ? उसके का कोई एक ही प्राचार्य है या अनेक हैं ? इस प्रश्न के प्रथम अंश के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता। दूसरे अंश का उत्तर यह है कि 'अावश्यक-सूत्र' किसी एक की कृति नहीं है। अलबत्ता यह आश्चर्य की बात है कि संभवतः 'श्रावश्यक सूत्र' के बाद तुरन्त ही या उसके सम-समय में रचे जानेवाले दशवैकालिक के कारूप से श्री शय्यंभव सूरि का निर्देश स्वयं श्री भद्रबाहु ने किया है ( दशवैकालिकनियुक्ति, गा० 14-15); पर 'अावश्यक-सूत्र' के कर्ता का निर्देश नहीं किया है। श्री भद्रबाहु स्वामी नियुक्ति रचते समय जिन दस आगमों की नियुक्ति करने की जो प्रतिज्ञा करते हैं, उसमें दशकालिक के भी पहले 'आवश्यक' का उल्लेख है / यह कहा जा चुका है कि दशवैकालिक श्री शय्यंभव सूरि की १--प्रसिद्ध कहने का मतलब यह है कि श्री शीलाङ्क सूरि अपनी प्राचारङ्ग-वृत्ति में सूचित करते हैं कि 'श्रावश्यक' के अन्तर्गत चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) ही श्री भद्रबाहुस्वामी ने रचा है—अावश्यकान्तर्भूतश्चतुर्विंशतिस्तवस्त्वारातीयकालभाविना श्रीभद्रबाहुस्वामिनाऽकारि' पृ० 83 / इस कथन से यह साफः जान पड़ता है कि शीलाङ्क सूरि के जमाने में यह बात मानी जाती थी कि सम्पूर्ण 'आवश्यक-सूत्र' श्री भद्रबाहु की कृति नहीं है। २--श्रावस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरझमायारे / सूयगडे निज्जुत्ति, बुच्छामि तहा दसाणं च // 84 !! कप्पस्स य निज्जुत्ति, ववहारस्सेव परमणिउणस्स / / सूरिअपएणत्तीए वुच्छं इसिभासिाणं च / / 85 // Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक क्रिया 267 कृति है। यदि दस श्रागमों के उल्लेख का क्रम, काल-क्रम का सूचक है तो यह मानना पड़ेगा कि 'आवश्यक-सूत्र' श्री शय्यंभव सूरि के पूर्ववर्ती किसी अन्य स्थविर की, किंवा शय्यंभव सूरि के समकालीन किन्तु उनसे बड़े किसी अन्य स्थविर की कृति होनी चाहिए / तत्त्वार्थ-भाष्य-गत 'गणधरानन्तर्यादिभिः' इस अंश में वर्तमान 'श्रादि' पद से तीर्थकर-गणधर के बाद के श्रव्यवहित स्थविर की तरह तीर्थकर गणधर के समकालीन स्थविर का भी ग्रहण किया जाय तो 'आवश्यकसूत्र' का रचना-काल ईस्वी सन् से पूर्व अधिक से अधिक छठी शताब्दि का अन्तिम चरण ही माना जा सकता है और उसके कर्तारूप से तीर्थकर-गणधर के समकालीन कोई स्थविर माने जा सकते हैं / जो कुछ हो, पर इतना निश्चित जान पड़ता है कि तीर्थकर के समकालीन स्थविरों से लेकर भद्रबाहु के पूर्ववर्ती या समकालीन स्थविरों तक में से ही किसी की कृति 'श्रावश्यक-सूत्र' है / मूल 'आवश्यक-सूत्र' की परीक्षण-विधि- मूल 'आवश्यक' कितना है अर्थात् उसमें कौन-कौन सूत्र सन्निविष्ट हैं, इसकी परीक्षा करना जरूरी है; क्योंकि आजकल साधारण लोग यही समझ रहे हैं कि 'श्रावश्यक-क्रिया में जितने सूत्र पढ़े जाते हैं, वे सब मूल 'श्रावश्यक' के हो हैं। मूल 'श्रावश्यक' को पहचानने के उपाय दो हैं--पहला यह कि जिस सूत्र के ऊपर शब्दशः किंवा अधिकांश शब्दों की सूत्र-स्पर्शिक नियुक्ति हो, वह सूत्र मूल 'आवश्यक'-त है। और दूसरा उपाय यह है कि जिस सूत्र के ऊपर शब्दशः किंवा अधिकांश शब्दों की सूत्र-स्पर्शिक नियुक्ति नहीं है; पर जिस सूत्र का अर्थ सामान्य रूप से भी नियुक्ति में वर्णित है या जिस सत्र के किसी-किसी शब्द पर नियुक्त है या जिस सूत्र की व्याख्या करते समय प्रारम्भ में टीकाकर श्री हरिभद्र सूरि ने 'सूत्रकार आहे' तच्च इदं सूत्रं, इमं सूत्र' इत्यादि प्रकार का उल्लेख किया है, वह सूत्र भी मूल 'श्रावश्यक'-गत समझना चाहिए / पहले उपाय के अनुसार 'नमुक्कार, करेमि भंते, लोगस्स, इच्छामि खमासमणो, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ, नमुक्कारसहिय आदि पच्चक्खाण-' इतने सूत्र मौलिक जान पड़ते हैं। दूसरे उपाय के अनुसार 'चत्तारि मंगलं, इच्छामि पडिक्कमिडं जो मे देवसिश्रो, इरियावहियाए, पगामसिज्जाए, पडिक्कमामि गोयरचरियाए, पडिस्क मामि चाउक्कालं, पडिक्कमामि एगविहे, नमो चउविसाए, इच्छामि ठाइउं काउस्सग्गं, सव्वलोए अरिहंतचेइयाएं, इच्छामि खमासमणो उवडिप्रोमि अभितर पक्खियं, इच्छामि स्वमासमणो पियं च में, इच्छामि खमासमणो पुन्वि चेह Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 जैन धर्म और दर्शन याई, इच्छामि खमासमणो उब्वडियोमि तुब्भरह, इच्छामि खमासमणो कयाई च मे, पुव्यामेव मिच्छत्तानो पडिक्कम्मइ कित्तिकम्मा-इतने सूत्र मौलिक जान पड़ते है। तथा इनके अलावा 'तत्थ समणोवासो, थूलगपाणाइवायं समणोवासो पन्चक्खाइ, थूलगमुसावायं,' इत्यादि जो सूत्र श्रावक-धर्म-संबन्धी अर्थात् सम्यक्त्व, बारह व्रत और संलेखनाविषयक हैं तथा जिनके आधार पर 'वंदित्तु' की पद्य-बन्ध रचना हुई है, वे सूत्र भी मौलिक जान पड़ते हैं / यद्यपि इन सूत्रों के पहले टीकाकार ने 'सूत्रकार आह, सूत्र' इत्यादि शब्दों का उल्लेख नहीं किया है तथापि 'प्रत्याख्यान-आवश्यक' में नियुक्तिकार ने प्रत्याख्यान का सामान्य स्वरूप दिखाते समय अभिग्रह की विविधता के कारण श्रावक के अनेक मेद बतलाए हैं। जिससे जान पड़ता है। श्रावक-धर्म के उक्त सत्रों को लक्ष्य में रखकर ही नियुक्तिकार ने श्रावक-धर्म की विविधता का वर्णन किया है / आजकल की सामाचारी में जो प्रतिक्रमण की स्थापना की जाती है, वहाँ से लेकर 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' की स्तुति पर्यन्त में ही छह 'श्रावश्यक' पूर्ण हो जाते हैं / अतएव यह तो स्पष्ट ही है कि प्रतिक्रमण की स्थापना के पूर्व किए जानेवाले चैत्य-चन्दन का भाग और 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' की स्तुति के बाद पढ़े जाने वाले सज्झाय, स्तवन, शान्ति आदि, ये सब छह 'श्रावश्यक' के बहिर्भूत हैं / अतएव उनका मूल 'श्रावश्यक' में न पाया जाना स्वाभाविक ही है / भाषा दृष्टि भाषा के गद्य-पद्य मौलिक हो ही नहीं सकते; क्योंकि सम्पूर्ण मूल 'आवश्यक' प्राकृत भाषा में ही है / प्राकृत-भाषा-मय गद्य-पद्य में से जितने सूत्र उक्त दो उपायों के अनुसार मौलिक बतलाए गए हैं, उनके अलावा अन्य सूत्र को मूल 'श्रावश्यक'-गत मानने का प्रमाण अभी तक हमारे ध्यान में नहीं आया है। अतएव यह समझना चाहिए कि छह 'अावश्यकों में 'सात लाख, अटारह पापस्थान, श्रायरिय-उवज्झाए, वेयावच्चगराण, पुक्खरवरदीवड्ढे, सिद्धाणं बुद्धाणं, सुअदेवया भगवई आदि थुई और 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' आदि जो-जो पाठ बोले जाते हैं, वे सब मौलिक नहीं हैं / यद्यपि 'श्रायरियउवझ्झाए, पुक्खखरदीवड्ढ़े, सिद्धाणं बुद्धाणं' ये मौलिक नहीं हैं तथापि वे प्राचीन हैं; क्योंकि उनका उल्लेख करके श्री हरिभद्र सूरि ने स्वयं उनकी व्याख्या की है। प्रस्तुत परीक्षण विधि का यह मतलब नहीं है कि जो सूत्र मौलिक नहीं है, उसका महत्त्व कम है / यहाँ तो सिर्फ इतना ही दिखाना है कि देश, काल और Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक क्रिया 169 रुचि के परिवर्तन के साथ-साथ 'श्रावश्यक'-क्रियोपयोगी सूत्र की संख्या में तथा भाषा में किस प्रकार परिवर्तन होता गया है / ___यहाँ यह सूचित कर देना अनुपयुक्त न होगा कि आजकल दैवसिक-प्रतिक्रमण में 'सिद्धाणं बुद्धाणं' के बाद जो श्रुतदेवता तथा क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग किया जाता है और एक-एक स्तुति पढ़ी जाती है, वह भाग कम से कम श्री हरिभद्र सरि के समय में प्रचलित प्रतिक्रमण-विधि में सन्निविष्ट न था, क्योंकि उन्होंने अपनी टीका में जो विधि दैवसिक-प्रतिक्रमण की दी है, उसमें 'सिद्धाणं' के बाद प्रतिलेखन वन्दन करके तीन स्तुति पढ़ने का ही निर्देश किया है—(आवश्यक वृत्ति, पृ० 760) / विधि-विषयक सामाचारी-भेद पुराना है; क्योंकि मूल-टीकाकार-संमत विधि के अलावा अन्य विधि का भी सूचन श्री हरिभद्रसूरि ने किया है (आवश्यकवृत्ति, पृ. 763) / उस समय पाक्षिक-प्रतिक्रमण में क्षेत्रदेवता का काउस्सग्ग प्रचलित नहीं था; पर शय्यादेवता का काउस्सग्ग किया जाता था / कोई-कोई चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में भी शय्यादेवता का काउस्सग्ग करते थे और क्षेत्रदेवता का काउस्सगा तो चातुर्मासिक और सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण में प्रचलित था--आवश्यक-वृत्ति, पृ० 464; भाष्य गाथा 233 / इस जगह मुख पर मुँहपत्ती बाँधनेवालों के लिए यह बात खास अर्थसूचक है कि श्री भद्रबाहु के समय में भी काउस्सग्ग करते समय मुँहपत्ती हाथ में रखने का ही उल्लेख है-आवश्यक नियुक्ति, पृ० 767, गाथा 1545 / / मूल 'आवश्यक' के टीका-ग्रन्थ--'आवश्यक', यह साधु-श्रावक-उभय की महत्त्वपूर्ण क्रिया है / इसलिए 'अावश्यक-सूत्र' का गौरव भी वैसा ही है / यही कारण है कि श्री भद्रबाहु स्वामी ने दस नियुक्ति रचकर तत्कालीन प्रथा के अनुसार उसकी प्राकृत-पद्य-मय टीका लिखी। यही 'श्रावश्यक' का प्राथमिक टीकाग्रन्थ है। इसके बाद संपूर्ण 'श्रावश्यक' के ऊपर प्राकृत-पद्य-मय भाष्य बना, जिसके कर्ता अज्ञात हैं। अनन्तर चूणी बनी, जो संस्कृत-मिश्रित प्राकृत-गद्य-मय है और जिसके कर्ता संभवतः जिनदास गणि हैं। अब तक भाषा-विषयक यह लोक-रुचि कुछ बदल गई थी। यह देखकर समय-सूचक आचार्यों ने संस्कृत-भाषा में भी टीका लिखना प्रारम्भ कर दिया था। तदनुसार 'आवश्यक' के ऊपर भी कई संस्कृत-टीकाएँ बनी, जिनका सूचन श्री हरिभद्र सूरि ने इस प्रकार किया है Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 जैन धर्म और दर्शन . 'यद्यपि मया तथान्यैः, कृतास्य विवृतिस्तथापि संक्षेपात् / तद्चिसत्त्वानुग्रहहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् // जान पड़ता है कि वे संस्कृत-टीकाएँ संक्षिप्त रही होंगी।आवश्यक-वृत्ति, पृ० 1 अतएव श्री हरिभद्रसूरि ने 'आवश्यक के ऊपर एक बड़ी टीका लिखी, जो उपलब्ध नहीं है; पर जिसका सूचन वे स्वयं 'मया' इस शब्द से करते हैं और जिसके संबन्ध की परंपरा का निर्देश श्री हेमचन्द्र मलधारी अपने 'आवश्यकटिप्पण---पृ० 1 में करते हैं। ___ बड़ी टीका के साथ-साथ श्री हरिभद्र सूरि ने संपूर्ण 'आवश्यक' के ऊपर छोटी टीका भी लिखी, जो मुद्रित हो गई है, जिसका परिमाण बाईस हजार श्लोक का है, जिसका नाम 'शिष्यहिता' है और जिसमें संपूर्ण मूल 'श्रावश्यक' तथा उसकी नियुक्ति की संस्कृत में व्याख्या है। इसके उपरान्त उस टीका में मूल, भाष्य तथा चूर्णी का भी कुछ भाग लिया गया है / श्री हरिभद्रसरि की इस टीका के ऊपर श्री हेमचन्द्र मलधारी ने टिप्पण लिखा है। श्री मलयगिरि सूरि ने भी 'श्रावश्यक' के ऊपर टीका लिखी है, जो करीब दो अध्ययन तक की है और अभी उपलब्ध है। यहाँ तक तो हुई संपूर्ण 'आवश्यक' के टीका-ग्रन्थों की बात; पर उनके अलावा केवल प्रथम अध्ययन, जो सामायिक अध्ययन के नाम से प्रसिद्ध है, उस पर भी बड़े-बड़े टीका-अन्य बने हुए हैं। सबसे पहले सामायिक अध्ययन की नियुक्ति के ऊपर श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने प्राकृत-पद्य-मय भाष्य लिखा जो विशेषावश्यक भाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। यह बहुत बड़ा आकर अन्य है। इस भाष्य के ऊपर उन्होंने स्वयं संस्कृत-टीका लिखी है / कोट्याचार्य, जिनका दूसरा नाम शीलाङ्क है और जो श्राचाराङ्ग तथा सूत्र-कृताङ्ग के टीकाकार हैं, उन्होंने भी उक्त विशेषावश्यक भाष्य पर टीका लिखी है। श्री हेमचन्द्र मलधारी की भी उक्त भाष्य पर बहुत गम्भीर और विशद टीका है। 'आवश्यक' और श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय 'आवश्यक-क्रिया जैनत्व का प्रधान अङ्ग है। इसलिए उस क्रिया का तथा उस क्रिया के सूचक 'आवश्यक-सूत्र' का जैन-समाज की श्वेताम्बर-दिगम्बर, इन दो शाखाओं में पाया जाना स्वाभाविक है / श्वेताम्बर सम्प्रदाय में साधु-परंपरा अविच्छिन्न चलते रहने के कारण साधु-श्रावक दोनों को 'आवश्यक-क्रिया' तथा 'श्रावश्यक-सत्र' अभी तक मौलिक रूप में पाये जाते हैं / इसके विपरीत दिगम्बरसम्प्रदाय में साधु-परंपरा विरल और विच्छिन्न हो जाने के कारण साधु संबन्धी 'श्रावश्यक-क्रिया' तो लुसप्राय है ही, पर उसके साथ-साथ उस सम्प्रदाय में Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक क्रिया 201 आवक-संबन्धी 'श्रावश्यक-क्रिया' भी बहुत अंशों में विरल हो गई है। अतएव दिगम्बर-संप्रदाय के साहित्य में 'आवश्यक-सूत्र' का मौलिक रूप में संपूर्णतया न पाया जाना कोई अचरज की बात नहीं / फिर भी उसके साहित्य में एक 'मूलाचार' नामक प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध है, जिसमें साधुओं के प्राचारों का वर्णन है / उस ग्रन्थ में छह 'श्रावश्यक' का भी निरूपण है / प्रत्येक 'आवश्यक' का वर्णन करने वाली गाथाओं में अधिकांश गाथाएँ वही हैं, जो श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में प्रसिद्ध श्री भद्रबाहुकृत नियुक्ति में हैं / मूलाचार का समय ठीक ज्ञात नहीं; पर वह है प्राचीन / उसके कर्ता श्री वट्टकेर स्वामी हैं। 'वट्टकर', यह नाम ही सूचित करता है कि मूलाचार के कर्ता संभवतः कर्णाटक में हुए होंगे / इस कल्पना की पुष्टि का कारण एक यह भी है कि दिगम्बर-सम्प्रदाय के प्राचीन बड़े-बड़े साधु, भट्टारक और विद्वान् अधिकतर कर्णाटक में ही हुए हैं / उस देश में दिगम्बर-सम्प्रदाय का प्रभुत्व वैसा ही रहा है, जैसा गुजरात में श्वेताम्बर-सम्प्रदाय का / मूलाचार में श्री भद्रबाहु-कृत नियुक्ति-गत गाथाओं का पाया जाना बहुत * अर्थ-सचक है। इससे श्वेताम्बर-दिगम्बर-संप्रदाय की मौलिक एकता के समय का कुछ प्रतिभास होता है। अनेक कारणों से यह कल्पना नहीं की जा सकती है कि दोनों संप्रदाय का भेद रूढ़ हो जाने के बाद दिगम्बर-प्राचार्य ने श्वेताम्बरसंप्रदाय द्वारा सुरक्षित 'आवश्यक-नियुक्ति' गत गाथाओं को लेकर अपनी कृति में ज्यों का त्यों किंवा कुछ परिवर्तन करके रख दिया है। दक्षिण देश में श्री भद्रबाहु स्वामी का स्वर्गवास हुआ, यह तो प्रमाणित ही है, अतएव अधिक संभव यह है कि श्री भद्रबाहु की जो एक शिष्य-परंपरा दक्षिण में रही और आगे जाकर जो दिगम्बर-संप्रदाय-रूप में परिणत हो गई, उसने अपनी गुरु की कृति को स्मृति-पथ में रक्खा और दूसरी शिष्य परंपरा, जो उत्तर हिंदुस्तान में रही, एवं आगे जाकर बहुत अंशों में श्वेताम्बर-संप्रदाय रूप में परिणत हो गई, उसने भी अन्य ग्रन्थों के साथ-साथ अपने गुरु की कृति को सम्हाल रक्खा / क्रमशः दिगम्बर संप्रदाय में साधु-परंपरा विरल होती चली; अतएव उसमें सिर्फ 'श्रावश्यक-नियुक्ति' ही नहीं, बल्कि मूल 'श्रावश्यक-सूत्र' भी त्रुटित और विरल हो गया। इसके विपरीत श्वेताम्बर संप्रदाय की अविच्छिन्न साधु-परंपरा ने सिर्फ मूल 'श्रावश्यक-सूत्र' को ही नहीं, बल्कि उसकी नियुक्ति को सुरक्षित रखने के पुण्यकार्य के अलावा उसके ऊपर अनेक बड़े-बड़े टीका-अन्य लिखे और तत्कालीन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 जैनधर्म और दर्शन श्राचार-विचार का एक प्रामाणिक संग्रह ऐसा बना रक्खा कि जो आज भी जैनधर्म के असली रूप को विशिष्ट रूप में देखने का एक प्रबल साधन है। . - अब एक प्रश्न यह है कि दिगम्बर-संप्रदाय में जैसे नियुक्ति अंशमात्र में भी पाई जाती है, वैसे मूल 'श्रावश्यक' पाया जाता है या नहीं ? अभी तक उस संप्रदाय के 'श्रावश्यक-क्रिया' संबन्धी दो ग्रन्थ हमारे देखने में आए हैं। जिनमें एक मुद्रित और दूसरा लिखित है। दोनों में सामायिक तथा प्रतिक्रमण के पाठ हैं / इन पाठों में अधिकांश भाग संस्कृत है, जो मौलिक नहीं है। जो भाग प्राकृत है, उसमें भी नियुक्ति के आधार से मौलिक सिद्ध होनेवाले 'श्रावश्यकसूत्र' का अंश बहुत कम है। जितना मूल भाग है, वह भी श्वेताम्बर-संप्रदाय में प्रचलित मूल पाठ की अपेक्षा कुछ न्यूनाधिक या कहीं कहीं रूपान्तरित भी हो गया है। नमुक्कार, करेमि भंते, लोगस्स. तस्स उत्तरी, अन्नत्थ, जो मे देवसिनो अइयारो कत्रो, इरियावहियाए, चत्तारि मंगलं. पडिकमामि एगविहे, इणमेव निग्गन्धपावयणं तथा वंदित्तु के स्थानापन्न अर्थात् श्रावक-धर्म-सम्यक्त्व, बारह व्रत, और संलेखना के अतिचारों के प्रतिक्रमण का गद्य भाग', इतने मूल 'आवश्यक-सूत्र' उक्त दो दिगम्बर-ग्रन्थों में हैं। __इनके अतिरिक्त, जो बृहत्प्रतिक्रमण-नामक भाग लिखित प्रति में है, वह श्वेताम्बर-संप्रदाय-प्रसिद्ध पक्खिय सूत्र से मिलता जुलता है। हमने विस्तार-भय से उन सब पाठों का यहाँ उल्लेख न करके उनका सूचनमात्र किया है। मूलाचार-गतं 'श्रावश्यक-नियुक्ति' की सब गाथाओं को भी हम यहाँ उद्धत नहीं करते / सिर्फ दो-तीन गाथाओं को देकर अन्य गाथाओं के नम्बर नीचे लिख देते हैं, जिससे जिज्ञासु लोग स्वयं ही मूलाचार तथा 'आवश्यक-नियुक्ति देख कर मिलान कर लेंगे। प्रत्येक 'आवश्यक' का कथन करने की प्रतिज्ञा करते समय श्री वट्टकेर स्वामी का यह कथन कि 'मैं प्रस्तुत 'आवश्यक' पर नियुक्ति कहूँगा'-( मूलाचार, गा० 517, 537, 574, 611, 631, 647), यह अवश्य अर्थ-सूचक है; क्योंकि संपूर्ण मूलाचार में 'श्रावश्यक का भाग छोड़कर अन्य प्रकरण में 'नियुक्ति' शब्द एक-आध जगह आया है। घडावश्यक के अन्त में भी उस भाग को श्री वट्टकेर स्वामी नियुक्ति के नाम से ही निर्दिष्ट किया है (मूलाचार, गा० 686, 660) इससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय श्री भद्रबाहु-कृत नियुक्ति का जितना भाग दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित रहा होगा, उसको संपूर्ण किंवा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 आवश्यक क्रिया अंशत: उन्होंने अपने ग्रन्थ में सन्निविष्ट कर दिया। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में पाँचवाँ 'श्रावश्यक' कायोत्सर्ग और छठा प्रत्याख्यान है। नियुक्ति में छह 'श्रावश्यक' का नाम निर्देश करनेवाली गाथा में भी वही क्रम है; पर मूलाचार में पाँचवाँ 'आवश्यक' प्रत्याख्यान और छठा कायोत्सर्ग है। खमामि सब्वजीवाणं, सब्वे जीवा खमंतु मे। मेत्ती मे सव्वभूदेसु, वेरं मझ ण केण वि / / बृहत्प्रतिक० / खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मेत्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मभं न केणई // श्राव, पृ० 765 / एसो पंचणमोयारो, सव्वपावपणासणो / मंगलेसु य सव्वेसु, पढमं वदि मंगलं // 514 / / मूला० / एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो / मंगलाणं च सव्वैसिं, पढमं हवइ मंगलं // 132 / / आव०नि० / सामाइयंमि दु कदे, समणो इव सावो हवदि जम्हा / एदेन कारणेण दु, बहुसो सामाइयं कुज्जा // 531 / / मूला। सामाइयंमि उ कए, समणो इब सावो हवई जम्हा / एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा // 801 // श्राव० नि० / मूला०,गा० नं० / आव०नि०, गा० नं० [ मूला०, गा० नं / श्राव-नि०, गा० नं 504 618536 ( लोगस्स 1,7) 505 621 | 540 1058 653 541 1057 510 544 165 511 667 167 512 546 166 514 132 550 201 524 (भाष्य, 146) 551 202 767 552 1056 526 768 553 1060 53. 766 531 1051 533 1245 1063,1064 (भाष्य,१६०) | 558 1065 507 عرعر عرعر عرعر عرعر له له له سه سه لم 555 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 1233 1rm जैन धर्म और दर्शन मूला•, गा० नं० / श्राव०नि०, गा०नं० / मूला०, गानं० / आव०नि०,गानं. 556 1066 / 607 1211 560 1066 1212 561 1076 1225 563 1077 612 564 1066 1247 565 1063 1231 566 1064 1232 567 1065 1250 568 1066/621 1243 566 1244 (भाष्य, 263) 577 1565 (भाष्य, 246) 562 250 1107 251 564 1161 1556 565 648 1487 566 656 1458 567 1168668 566 1200 547 1201 | 671 1541 1202 1479 1207 1468 1208 ! 676 1460 1206 1462 1210 / [ 'पंचप्रतिक्रमण' की प्रस्तावना MNSnnummmm 1217 % 601 # 675 6.4 # # . #