________________ 200 जैन धर्म और दर्शन . 'यद्यपि मया तथान्यैः, कृतास्य विवृतिस्तथापि संक्षेपात् / तद्चिसत्त्वानुग्रहहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् // जान पड़ता है कि वे संस्कृत-टीकाएँ संक्षिप्त रही होंगी।आवश्यक-वृत्ति, पृ० 1 अतएव श्री हरिभद्रसूरि ने 'आवश्यक के ऊपर एक बड़ी टीका लिखी, जो उपलब्ध नहीं है; पर जिसका सूचन वे स्वयं 'मया' इस शब्द से करते हैं और जिसके संबन्ध की परंपरा का निर्देश श्री हेमचन्द्र मलधारी अपने 'आवश्यकटिप्पण---पृ० 1 में करते हैं। ___ बड़ी टीका के साथ-साथ श्री हरिभद्र सूरि ने संपूर्ण 'आवश्यक' के ऊपर छोटी टीका भी लिखी, जो मुद्रित हो गई है, जिसका परिमाण बाईस हजार श्लोक का है, जिसका नाम 'शिष्यहिता' है और जिसमें संपूर्ण मूल 'श्रावश्यक' तथा उसकी नियुक्ति की संस्कृत में व्याख्या है। इसके उपरान्त उस टीका में मूल, भाष्य तथा चूर्णी का भी कुछ भाग लिया गया है / श्री हरिभद्रसरि की इस टीका के ऊपर श्री हेमचन्द्र मलधारी ने टिप्पण लिखा है। श्री मलयगिरि सूरि ने भी 'श्रावश्यक' के ऊपर टीका लिखी है, जो करीब दो अध्ययन तक की है और अभी उपलब्ध है। यहाँ तक तो हुई संपूर्ण 'आवश्यक' के टीका-ग्रन्थों की बात; पर उनके अलावा केवल प्रथम अध्ययन, जो सामायिक अध्ययन के नाम से प्रसिद्ध है, उस पर भी बड़े-बड़े टीका-अन्य बने हुए हैं। सबसे पहले सामायिक अध्ययन की नियुक्ति के ऊपर श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने प्राकृत-पद्य-मय भाष्य लिखा जो विशेषावश्यक भाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। यह बहुत बड़ा आकर अन्य है। इस भाष्य के ऊपर उन्होंने स्वयं संस्कृत-टीका लिखी है / कोट्याचार्य, जिनका दूसरा नाम शीलाङ्क है और जो श्राचाराङ्ग तथा सूत्र-कृताङ्ग के टीकाकार हैं, उन्होंने भी उक्त विशेषावश्यक भाष्य पर टीका लिखी है। श्री हेमचन्द्र मलधारी की भी उक्त भाष्य पर बहुत गम्भीर और विशद टीका है। 'आवश्यक' और श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय 'आवश्यक-क्रिया जैनत्व का प्रधान अङ्ग है। इसलिए उस क्रिया का तथा उस क्रिया के सूचक 'आवश्यक-सूत्र' का जैन-समाज की श्वेताम्बर-दिगम्बर, इन दो शाखाओं में पाया जाना स्वाभाविक है / श्वेताम्बर सम्प्रदाय में साधु-परंपरा अविच्छिन्न चलते रहने के कारण साधु-श्रावक दोनों को 'आवश्यक-क्रिया' तथा 'श्रावश्यक-सत्र' अभी तक मौलिक रूप में पाये जाते हैं / इसके विपरीत दिगम्बरसम्प्रदाय में साधु-परंपरा विरल और विच्छिन्न हो जाने के कारण साधु संबन्धी 'श्रावश्यक-क्रिया' तो लुसप्राय है ही, पर उसके साथ-साथ उस सम्प्रदाय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org