________________ आवश्यक क्रिया 201 आवक-संबन्धी 'श्रावश्यक-क्रिया' भी बहुत अंशों में विरल हो गई है। अतएव दिगम्बर-संप्रदाय के साहित्य में 'आवश्यक-सूत्र' का मौलिक रूप में संपूर्णतया न पाया जाना कोई अचरज की बात नहीं / फिर भी उसके साहित्य में एक 'मूलाचार' नामक प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध है, जिसमें साधुओं के प्राचारों का वर्णन है / उस ग्रन्थ में छह 'श्रावश्यक' का भी निरूपण है / प्रत्येक 'आवश्यक' का वर्णन करने वाली गाथाओं में अधिकांश गाथाएँ वही हैं, जो श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में प्रसिद्ध श्री भद्रबाहुकृत नियुक्ति में हैं / मूलाचार का समय ठीक ज्ञात नहीं; पर वह है प्राचीन / उसके कर्ता श्री वट्टकेर स्वामी हैं। 'वट्टकर', यह नाम ही सूचित करता है कि मूलाचार के कर्ता संभवतः कर्णाटक में हुए होंगे / इस कल्पना की पुष्टि का कारण एक यह भी है कि दिगम्बर-सम्प्रदाय के प्राचीन बड़े-बड़े साधु, भट्टारक और विद्वान् अधिकतर कर्णाटक में ही हुए हैं / उस देश में दिगम्बर-सम्प्रदाय का प्रभुत्व वैसा ही रहा है, जैसा गुजरात में श्वेताम्बर-सम्प्रदाय का / मूलाचार में श्री भद्रबाहु-कृत नियुक्ति-गत गाथाओं का पाया जाना बहुत * अर्थ-सचक है। इससे श्वेताम्बर-दिगम्बर-संप्रदाय की मौलिक एकता के समय का कुछ प्रतिभास होता है। अनेक कारणों से यह कल्पना नहीं की जा सकती है कि दोनों संप्रदाय का भेद रूढ़ हो जाने के बाद दिगम्बर-प्राचार्य ने श्वेताम्बरसंप्रदाय द्वारा सुरक्षित 'आवश्यक-नियुक्ति' गत गाथाओं को लेकर अपनी कृति में ज्यों का त्यों किंवा कुछ परिवर्तन करके रख दिया है। दक्षिण देश में श्री भद्रबाहु स्वामी का स्वर्गवास हुआ, यह तो प्रमाणित ही है, अतएव अधिक संभव यह है कि श्री भद्रबाहु की जो एक शिष्य-परंपरा दक्षिण में रही और आगे जाकर जो दिगम्बर-संप्रदाय-रूप में परिणत हो गई, उसने अपनी गुरु की कृति को स्मृति-पथ में रक्खा और दूसरी शिष्य परंपरा, जो उत्तर हिंदुस्तान में रही, एवं आगे जाकर बहुत अंशों में श्वेताम्बर-संप्रदाय रूप में परिणत हो गई, उसने भी अन्य ग्रन्थों के साथ-साथ अपने गुरु की कृति को सम्हाल रक्खा / क्रमशः दिगम्बर संप्रदाय में साधु-परंपरा विरल होती चली; अतएव उसमें सिर्फ 'श्रावश्यक-नियुक्ति' ही नहीं, बल्कि मूल 'श्रावश्यक-सूत्र' भी त्रुटित और विरल हो गया। इसके विपरीत श्वेताम्बर संप्रदाय की अविच्छिन्न साधु-परंपरा ने सिर्फ मूल 'श्रावश्यक-सूत्र' को ही नहीं, बल्कि उसकी नियुक्ति को सुरक्षित रखने के पुण्यकार्य के अलावा उसके ऊपर अनेक बड़े-बड़े टीका-अन्य लिखे और तत्कालीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org