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जैन धर्म और दर्शन हो जाएँगे और विशेषता का विचार न करनेवाले लोगों में जिसके मन में जो श्राया, वह उसी कर्ता के सूत्रों को पढ़ने लगेगा। जिससे अपूर्व भाववाले प्राचीन सूत्रों के साथ-साथ एकता का भी लोप हो जाएगा। इसलिए धार्मिक क्रिया के सूत्र-पाठ श्रादि जिस-जिस भाषा में पहले से बने हुए हैं, वे उस-उस भाषा में ही पढ़े जाने चाहिए । इसी कारण वैदिक, बौद्ध आदि सभी सम्प्रदायों में 'संध्या' आदि नित्य कर्म प्राचीन शास्त्रीय भाषा में ही किये जाते हैं ।
यह ठीक है कि सर्वसाधारण की रुचि बढ़ाने के लिए प्रचलित लोक-भाषा की भी कुछ कृतियाँ ऐसी होनी चाहिए, जो धार्मिक क्रिया के समय पढ़ी जाएँ । इसी बात को ध्यान में रखकर लोक-रुचि के अनुसार समय-समय पर संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं में स्तोत्र, स्तुति, सज्झाय, स्तवन आदि बनाए हैं और उनको 'श्रावश्यक-क्रिया में स्थान दिया है। इससे यह फायदा हुआ कि प्राचीन सूत्र तथा उनका महत्त्व ज्यों का त्यों बना हुआ है और प्रचलित लोक-भाषा को कृतियों में साधारण जनता की रुचि भी पुष्ट होती रहती है।
(४) कितने लोगों का यह भी कहना है कि 'श्रावश्यक निया' अरुचिकर है-उसमें कोई रस नहीं पाता । ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि रुचि या अरुचि बाह्म वस्तु का धर्म नहीं है; क्योंकि कोई एक चीज सबके लिए रुचिकर नहीं होती। जो चीज एक प्रकार के लोगों के लिए रुचिकर है, वही दूसरे प्रकार के लोगों के लिए अरुचिकर हो जाती है। रुचि, यह अन्तःकरण का धर्म है। किसी चीज के विषय में उसका होना न होना उस वस्तु के ज्ञान पर अवलम्बित है । जब मनुष्य किसी वस्तु के गुणों को ठीक-ठीक जान लेता है, तब उसकी उस वस्तु पर प्रबल रुचि हो जाती है । इसलिए 'श्रावश्यक क्रिया' को अरुचिकर बतलाना, यह उसके महत्त्व तथा गुणों का श्रज्ञान-मात्र है। जैन और अन्य सम्प्रदायों का 'आवश्यक-कर्म'- सन्ध्या आदि ___'आवश्यक-क्रिया' के मूल तत्त्वों को दिखाते समय यह सूचित कर दिया गया है कि सभी अन्तदृष्टि वाले आत्माओं का जीवन सम-भावमय होता है । अत्तहदि किसी खास देश या खास काल की शृङ्खला में प्राबद्ध नहीं होती । उसका आविर्भाव सब देश और सब काल के प्रात्मानों के लिए साधारण होता है । अतएव उसको पाना तथा बढ़ाना सभी प्राध्यात्मिकों का ध्येय बन जाता है। प्रकृति, योग्यता और निमित्त-भेद के कारण इतना तो होना स्वाभाविक है कि किसी देश-विशेष, किसी काल-विशेष और किसी व्यक्ति-विशेष में अन्तर्ड ष्टि का विकास कम होता है और किसी में अधिक होता है । इसलिए आध्यात्मिक जीवन
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