________________ 266 __जैन धर्म और दर्शन पहली मियाद अधिक से अधिक ईस्वी सन् से पहिले लगभग पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक ही बताई जा सकती है। उसके रचना काल की उत्तर अवधि अधिक से अधिक ईस्वी सन् से पूर्व चौथी शताब्दी का प्रथम चरण ही माना जा सकता है; क्योंकि चतुर्दश-पूर्व-धर श्री भद्रबाहु स्वामी जिनका अवसान ईस्वी सन् से पूर्व तीन सौ छप्पन वर्ष के लगभग माना जाता है, उन्होंने 'आवश्यकसूत्र' पर सबसे पहले व्याख्या लिखी है, जो नियुक्ति के नाम से प्रसिद्ध है। यह तो प्रसिद्ध है कि नियुक्ति हो श्री भद्रबाहु की है, संपूर्ण मूल 'श्रावश्यक-सूत्र नहीं। ऐसी अवस्था में मूल 'श्रावश्यक-सूत्र' अधिक से अधिक उनके कुछ पूर्ववर्ती या समकालीन किसी अन्य श्रुतधर के रचे हुए मानने चाहिए / इस दृष्टि से यही मालूम होता है कि 'आवश्यक' का रचना-काल ईस्वी सन् से पूर्व पाँचवीं शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी के प्रथम चरण तक में होना चाहिए / दूसरा प्रश्न कर्ता का है / 'आवश्यक-सूत्र' के कर्ता कौन व्यक्ति हैं ? उसके का कोई एक ही प्राचार्य है या अनेक हैं ? इस प्रश्न के प्रथम अंश के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता। दूसरे अंश का उत्तर यह है कि 'अावश्यक-सूत्र' किसी एक की कृति नहीं है। अलबत्ता यह आश्चर्य की बात है कि संभवतः 'श्रावश्यक सूत्र' के बाद तुरन्त ही या उसके सम-समय में रचे जानेवाले दशवैकालिक के कारूप से श्री शय्यंभव सूरि का निर्देश स्वयं श्री भद्रबाहु ने किया है ( दशवैकालिकनियुक्ति, गा० 14-15); पर 'अावश्यक-सूत्र' के कर्ता का निर्देश नहीं किया है। श्री भद्रबाहु स्वामी नियुक्ति रचते समय जिन दस आगमों की नियुक्ति करने की जो प्रतिज्ञा करते हैं, उसमें दशकालिक के भी पहले 'आवश्यक' का उल्लेख है / यह कहा जा चुका है कि दशवैकालिक श्री शय्यंभव सूरि की १--प्रसिद्ध कहने का मतलब यह है कि श्री शीलाङ्क सूरि अपनी प्राचारङ्ग-वृत्ति में सूचित करते हैं कि 'श्रावश्यक' के अन्तर्गत चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) ही श्री भद्रबाहुस्वामी ने रचा है—अावश्यकान्तर्भूतश्चतुर्विंशतिस्तवस्त्वारातीयकालभाविना श्रीभद्रबाहुस्वामिनाऽकारि' पृ० 83 / इस कथन से यह साफः जान पड़ता है कि शीलाङ्क सूरि के जमाने में यह बात मानी जाती थी कि सम्पूर्ण 'आवश्यक-सूत्र' श्री भद्रबाहु की कृति नहीं है। २--श्रावस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरझमायारे / सूयगडे निज्जुत्ति, बुच्छामि तहा दसाणं च // 84 !! कप्पस्स य निज्जुत्ति, ववहारस्सेव परमणिउणस्स / / सूरिअपएणत्तीए वुच्छं इसिभासिाणं च / / 85 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org