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आवश्यक क्रिया - वैदिकसमाज में 'सन्ध्या' का, पारसी लोगों में 'खोर देह अवस्ता' का, यहूदी तथा ईसाइयों में प्रार्थना' का और मुसलमानों में 'नमाज' का जैसा महत्त्व है; जैन समाज में वैसा ही महत्त्व 'अावश्यक' का है।
जैन समाज की मुख्य दो शाखाएँ हैं, (१) श्वेताम्बर और (२) दिगम्बर । दिगम्बर-सम्प्रदाय में मुनि-परंपरा विच्छिन्न-प्रायः है। इसलिए उसमें मुनियों के "श्रावश्यक-विधान' का दर्शन सिर्फ शास्त्र में ही है, व्यवहार में नहीं है । उसके श्रावक-समुदाय में भी 'श्रावश्यक' का प्रचार वैसा नहीं है, जैसा श्वेताम्बरशाखा में है। दिगम्बर समाज में जो प्रतिमाधारी या ब्रह्मचारी आदि होते हैं, उनमें मुख्यतया सिर्फ 'सामायिक' करने का प्रचार देखा जाता है। शृंखलाबद्ध रीति से छहों 'अावश्यकों का नियमित प्रचार जैसा श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में आबालवृद्ध प्रसिद्ध है। वैसा दिगम्बर-सम्प्रदाय में प्रसिद्ध नहीं है । अर्थात् दिगम्बरसम्प्रदाय में सिलसिलेवार छहों 'श्रावश्यक' करने की परम्परा देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चतुर्मासिक और साम्वत्सरिक रूप से वैसी प्रचलित नहीं है, जैसी श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में प्रचलित है।
यानी जिस प्रकार श्वेताम्बर-सम्प्रदाय सांयकाल, प्रातःकाल, प्रत्येक पक्ष के अन्त में, चातुर्मास के अन्त में और वर्ष के अन्त में स्त्रियों का तथा पुरुषों का समुदाय अलग-अलग या एकत्र होकर अथवा अन्त में अकेला व्यक्ति ही सिलसिले से छहों 'श्रावश्यक' करता है, उस प्रकार 'श्रावश्यक' करने की रीति दिगम्बरसम्प्रदाय में नहीं है।
श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की भी दो प्रधान शाखाएँ हैं-(१) मूर्तिपूजक और (२) स्थानकवासी। इन दोनों शाखाओं की साधु-श्रावक-दोनों संस्थानों में दैवसिक, रात्रिक अादि पाँचो प्रकार के 'अावश्यक' करने का नियमित प्रचार अधिकारानुरूप बराबर चला आता है।
मूर्तिपूजक और स्थानकवासी---दोनों शाखात्रों के साधुनों को तो सुबह शाम अनिवार्यरूप से 'आवश्यक' करना ही पड़ता है; क्योंकि शास्त्र में ऐसी अाज्ञा है कि प्रथम और चरम तीर्थकर के साधु 'आवश्यक' नियम से करें। अतएव यदि वे उस आज्ञा का पालन न करें तो साधु-पद के अधिकारी ही नहीं समझे जा सकते ।
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