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• अावश्यक क्रियाः
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मुक्त हो कर धीरे-धीरे अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाय । इसी से प्रतिक्रमणक्रिया आध्यात्मिक है।
कायोत्सर्ग चित्त की एकाग्रता पैदा करता है और आत्मा को अपना स्वरूप विचारने का अवसर देता है, जिससे प्रात्मा निर्भय बनकर अपने कठिनतम उद्देश्य को सिद्ध कर सकता है। इसी कारण कायोत्सर्ग-क्रिया भी आध्यात्मिक है। .. दुनियाँ में जो कुछ है, वह सब न तो भोगा ही जा सकता है और न भोगने के योग्य ही है तथा वास्तविक शान्ति अपरिमित भोग से भी सम्भव नहीं है । इसलिए प्रत्याख्यान-क्रिया के द्वारा मुमुत्तुगण अपने को व्यर्थ के भोगों से बचाते हैं और उसके द्वारा चिरकालीन प्रात्मा-शान्ति पाते है । अतएव प्रत्याख्यान क्रिया भी आध्यात्मिक ही है। ___ भाव-आवश्यक एक लोकोत्तर क्रिया है; क्योंकि वह लोकोत्तर (मोक्ष) के उद्देश्य से आध्यात्मिक लोगों के द्वारा उपयोग पूर्वक की जानेवाली क्रिया है । इसलिए पहिले उसका समर्थन लोकोत्तर ( शास्त्रीय व निश्चय ) दृष्टि से किया जाता है और पीछे व्यावहारिक दृष्टि से भी उसका समर्थन किया जाएगा । क्योंकि 'अावश्यक' है तो लोकोत्तर क्रिया, पर उसके अधिकारी व्यवहार-निष्ठ होते हैं। .
जिन तत्त्वों के होने से ही मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों के जीवन से उच्च समझा जा सकता है और अन्त में विकास की पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है, वे तत्त्व ये हैं. ---
(१) समभाव अर्थात् शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का संमिश्रण, (२) जीवन को विशुद्ध बनाने के लिए सर्वोपरि जीवनवाले महात्माओं को आदशरूप से पसन्द करके उनकी ओर सदा दृष्टि रखना, (३) गुणवानों का बहुमान व विनय करना, (४) कर्तव्य की स्मृति तथा कर्तव्य-पालन में हो जानेवाली गलतियों का अवलोकन करके निष्कपट भाव से उनका संशोधन करना और फिर से वैसी. गलतियाँ न हों, इसके लिए आत्मा को जागृत करना; (५) ध्यान का अभ्यास करके प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रीति से समझने के लिए विवेक-शक्ति का विकास करना और (६ त्याग-वृत्ति द्वारा संतोष व सहनशीलता को बढ़ाना । __ इन तत्वों के आधार पर आवश्यक-क्रिया का महल खड़ा है। इसलिए शास्त्र'
-गुणवबहुमानादेनित्यस्मृत्या च सत्क्रिया। जातं न पातयेद्भावमजातं जनयेदपि ॥५॥ .. क्षायोपशमिकभावे या क्रिया क्रियते तया1 . पतितस्यापि तद्भावप्रवृद्धिर्जायते पुनः ॥६॥
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