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आवश्यक किया
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अपेक्षा उन व्रतों के गुणों की भावना करना तथा उन व्रतों को धारण करनेवाले उच्च श्रावकों को धन्यवाद देकर गुणानुराग पुष्ट करना ही युक्ति-संगत है ।
प्रश्न यह है कि जब ऐसी स्थिति है, तब व्रती अवती, छोटे-बड़े सभी rasों में एक ही 'वंदित्तु' सूत्र के द्वारा समान रूप से प्रतिचार का संशोधन करने की जो प्रथा प्रचलित है, वह कैसे चल पड़ी है ?
इसका खुलासा यह जान पड़ता है कि प्रथम तो सभी को 'आवश्यक' सूत्र पूर्णतया याद नहीं होता । और अगर याद भी हो, तब भी साधारण अधिकारियों के लिए केले की अपेक्षा समुदाय में ही मिलकर 'आवश्यक' करना लाभदायक माना गया है। तीसरे जब कोई सबसे उच्च श्रावक अपने लिए सर्वथा उपर्युक्त सम्पूर्ण 'वंदित्तु' सूत्र पढ़ता है, तत्र प्राथमिक और माध्यमिक सभी अधिकारियों के लिए उपयुक्त वह वह सूत्रांश भी उसमें आ ही जाता है। इन कारणों से ऐसी समुदायिक प्रथा पड़ी है कि एक व्यक्ति सम्पूर्ण 'वंदित्तु' सूत्र पढ़ता है और शेष श्रावक उच्च अधिकारी श्रावक का अनुकरण करके सत्र व्रतों के संबन्ध में तिचार का संशोधन करने लग जाते हैं। इस समुदायिक प्रथा के रूढ़ हो जाने के कारण जब कोई प्राथमिक या माध्यमिक श्रावक अकेला प्रतिक्रमण करता है, तब भी वह 'बंदित्तु' सूत्र को सम्पूर्ण ही पढ़ता है और ग्रहण नहीं किये हुए व्रतों के अतिचार का भी संशोधन करता है ।
इस प्रथा के रूढ़ जो जाने का एक कारण यह और भी मालूम पड़ता है कि सर्वसाधारण में विवेक की यथेष्ट मात्रा नहीं होती । इसलिए 'वंदित्तु' सूत्र में से अपने-अपने लिए उपयुक्त सूत्रांशों को चुनकर बोलना और शेष सूत्रांशों को छोड़ देना, यह काम सर्वसाधारण के लिए जैसा कठनि है, वैसा ही विषमता तथा गोलमाल पैदा करनेवाला भी है । इस कारण यह नियम रखा गया है कि जब सभा को या किसी एक व्यक्ति को 'पच्चक्खाण' कराया जाता है, तब ऐसा सूत्र पढ़ा जाता है कि जिसमें अनेक 'पच्चक्खाणों' का समावेश हो जाता है, जिससे तभी अधिकारी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार पच्चकखाण' कर लेते हैं ।
इस दृष्टि से यह कहना पड़ता है कि 'वंदितु' सूत्र अखण्डित रूप से पढ़ना न्याय व शास्त्र - संगत है । रही अतिचार-संशोधन में विवेक करने की बात, सो उसको विवेकी अधिकारी खुशी से कर सकता है। इसमें प्रथा बाधक नहीं है ।
१——अखण्डं सूत्रं पठनीयमिति न्यायात् धर्मसंग्रह, पृष्ठ २२३ ।
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