Book Title: Avashyaka Kriya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 9
________________ १८२ जैन धर्म और दर्शन किया' है । उसके लिए विशिष्ट चित्त-शुद्धि और विशेष उत्साह की दरकार है, जो कायोत्सर्ग किये बिना पैदा नहीं हो सकते। इसी अभिप्राय से कायोत्सर्ग के पश्चात् प्रत्याख्यान रखा गया है । इस प्रकार विचार करने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि छः 'आवश्यक' का जो क्रम है, वह विशेष कार्य-कारण-भाव की शृङ्खला पर स्थित है । उसमें उलट-फेर होने से उस की वह स्वाभाविकता नहीं रहती, जो कि उसमें है । 'आवश्यक-क्रिया' की आध्यात्मिका – जो क्रिया आत्मा के विकास को लक्ष्य में रख कर की जाती है, वही आध्यात्मिक क्रिया है । आत्मा के विकास का मतलब उस के सम्यक्त्व, चेतन, चारित्र यादि गुणों की क्रमशः शुद्धि करने से है । इस कसौटी पर कसने से यह अभ्रान्त रीति से सिद्ध होता है कि 'सामायिक' श्रादि छहों 'आवश्यक' आध्यात्मिक हैं। क्योंकि सामायिक का फल पापजनक व्यापार की निवृत्ति है, जो कि कर्म-निर्जरा द्वारा आत्मा के विकास का कारण है । चतुर्विंशतिस्तव का उद्देश्य गुणानुराम की वृद्धि द्वारा गुण प्राप्त करना है, जो कि कर्म- निर्जरा द्वारा आत्मा के विकास का साधन है । वन्दन-क्रिया के द्वारा विनय की प्राप्ति होती है, मान खण्डित होता है, गुरुजन की पूजा होती है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन होता है और श्रुतधर्म की आराधना होती है, जो कि अन्त में श्रात्मा के क्रमिक विकास द्वारा मोक्ष के कारण होते हैं । वन्दन करनेवालों को नम्रता के कारण शास्त्र सुनने का अवसर मिलता है। शास्त्र - श्रवण द्वारा क्रमशः ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान संयम, अनासव, तप, कर्मनाश, अक्रिया और सिद्धि ये फल बतलाए गए हैं ( श्र०नि०, गा० १२१५ तथा वृत्ति ) । इसलिए वन्दन क्रिया आत्मा के विकास का संदिग्ध कारण है । श्रात्मा वस्तुतः पूर्ण शुद्ध और पूर्ण बलवान् है, पर वह विविध वासनाओं के अनादि प्रवाह में पड़ने के कारण दोषों की अनेक तहों से दब-सा गया है; इसलिए जब वह ऊपर उठने का प्रयत्न करता है, तत्र उससे अनादि अभ्यासवश भूलें हो जाना सहज है । वह जब तब उन भूलों का संशोधन न करे, तब तक इष्ट सिद्धि हो ही नहीं सकती । इसलिए पद-पद पर की हुई भूलों को याद करके प्रतिक्रमण द्वारा फिर से उन्हें न करने के लिए वह निश्चय कर लेता है । इस तरह से प्रतिक्रमण क्रिया का उद्देश्य पूर्व दोषों को दूर करना और फिर से वैसे दोषों को न करने के लिए सावधान कर देना है, जिससे कि आत्मा दोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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