Book Title: Avashyaka Kriya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ आवश्यक क्रिया. १७६ प्रतिक्रमण का मतलब पीछे लौटना है—एक स्थिति में जाकर. फिर मूल स्थिति को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण शब्द की इस सामान्य व्याख्या के अनुसार ऊपर बतलाई हुई व्याख्या के विरुद्ध अर्थात् अशुभ योग से हट कर शुभ योग को प्राप्त करने के बाद फिर से अशुभ योग को प्राप्त करना यह भी प्रतिक्रमण कहा जा सकता है । अतएव यद्यपि प्रतिक्रमण के (१) प्रशस्त और (२) अप्रशस्त, ये दो भेद किये जाते हैं ( श्रा०, पृ० ५५२ ), तो भी 'श्रावश्यक' क्रिया में जिस प्रतिक्रमण का समावेश है वह अप्रशस्त नहीं किन्तु प्रशस्त ही है; क्योंकि इस जगह अन्तर्दृष्टि वाले-आध्यात्मिक पुरुषों की ही आवश्यक-क्रिया का विचार किया जाता है । (१) दैवसिक, (२) रात्रिक, (३। पाक्षिक, (४) चातुर्मासिक और (५) सांवत्सरिक, ये प्रतिक्रमण के पाँच भेद बहुत प्राचीन तथा शास्त्रसंमत हैं; क्योंकि इनका उल्लेख श्री भद्रबाहुस्वामी भी करते हैं (प्रा०नि०, गा० १२४७)। कालभेद से तीन प्रकार का प्रतिक्रमण भी बतलाया है--(१) भूतकाल में लगे हुए दोषों को आलोचना करना, (२) संवर करके वर्तमान काल के दोषों से बचना और (३) प्रत्याख्यान द्वारा भविष्यत् दोषों को रोकना प्रतिक्रमण है (आ० पृ० ५५१ । उत्तरोत्तर आत्मा के विशेष शुद्ध स्वरूप में स्थित होने की इच्छा करनेवाले अधिकारियों को यह भी जानना चाहिये कि प्रतिक्रमण किस-किस का करना चाहिए-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) कषाय और (४) अप्रशस्त योग--- इन चार का प्रतिक्रमण करना चाहिए। अर्थात् मिथ्यात्व छोड़कर सम्यक्त्व को पाना चाहिए, अविरति का त्याग कर विरति को स्वीकार करना चाहिये, कषाय का परिहार करके क्षमा आदि गुण प्राप्त करना चाहिए और संसार बढ़ानेवाले व्यापारों को छोड़कर अात्म-स्वरूप की प्राप्ति करनी चाहिए । ___ सामान्य रीति से प्रतिक्रमण (१) द्रव्य और (२) भाव, यो दो प्रकार का है । भावप्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्यप्रतिक्रमण नहीं । द्रव्यप्रतिक्रमण वह है, जो दिखावे के लिए किया जाता है । दोष का प्रतिक्रमण करने के बाद भी फिर से उस दोष को बार बार सेवन करना, यह द्रव्य प्रतिक्रमण है। इससे आत्मा शुद्ध होने के बदले धिठाई द्वारा और भी दोषों की पुष्टि होती है । इस पर कुम्हार के बर्तनों को कंकर द्वारा बार-बार फोड़कर बार-बार माफी माँगनेवाले एक दुल्लकसाधु का दृष्टान्त प्रसिद्ध है । (५) धर्म या शुक्ल-ध्यान के लिए एकाग्र होकर शरीर पर से ममता का त्याग करना 'कायोत्सर्ग' है। कायोत्सर्ग को यथार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21