Book Title: Avashyaka Kriya Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 3
________________ १७ जैन धर्म और दर्शन 'आवश्यक' के सूत्रों का तथा बीच में विधि करने का सिलसिला बहुधा वही है, जिसका उल्लेख श्रीहरिभद्रसूरि ने किया है। यद्यपि प्रतिक्रमण स्थापन के पहले चैत्य-चन्दन करने की और छठे 'श्रावश्यक' के बाद सज्झाय, स्तवन, स्तोत्र आदि पढ़ने की प्रथा पोछे सकारण प्रचलित हो गई है; तथापि मूर्तिपूजक-सम्प्रदाय की 'आवश्यक-क्रिया'-विषयक सामाचारी में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उसमें 'आवश्यकों के सूत्रों का तथा विधि का सिलसिला अभी तक प्राचीन ही चला पाता है।। __ 'आवश्यक' किसे कहते हैं ? जो क्रिया अवश्य करने योग्य है, उसी को "श्रावश्यक" कहते हैं । 'श्रावश्यक-क्रिया' सब के लिए एक नहीं, वह अधिकारी-भेद से जुदी-जुदी है। एक व्यक्ति जिस क्रिया को श्रावश्यक कर्म समझकर नित्यप्रति करता है, दूसरा उसी को आवश्यक नहीं समझता। उदाहरणार्थ-एक व्यक्ति काञ्चन-कामिनी को आवश्यक समझ कर उसकी प्राप्ति के लिए अपनी सारी शक्ति खर्च कर डालता है और दूसरा काञ्चन-कामिनी को अनावश्यक समझता है और उसके संग से बचने की कोशिश ही में अपने बुद्धि-बल का उपयोग करता है। इसलिए 'श्रावश्यक क्रिया का स्वरूप लिखने के पहले यह बतला देना जरूरी है कि इस जगह किस प्रकार के अधिकारियों का आवश्यक-कर्म विचारा जाता है। सामान्यरूप से शरीर-धारी प्राणियों के दो विभाग हैं:-(१) बहिण्टि और (२) अन्तर्दृष्टि । जो अन्तर्दृष्टि है--जिनकी दृष्टि आत्मा की अोर झुकी है अर्थात् जो सहज सुख को व्यक्त करने के विचार में तथा प्रयत्न में लगे हुए हैं, उन्हीं के 'अावश्यक-कर्म' का विचार इस जगह करना है। इस कथन से यह स्पष्ट सिद्ध है कि जो जड़ में अपने को नहीं भूले हैं-जिनकी दृष्टि को किसी भी जड़ वस्तु का सौन्दर्य लुभा नहीं सकता, उनका 'श्रावश्यक-कर्म' वही हो सकता है, जिसके द्वारा उनका आत्मा सहज सुख का अनुभव कर सके । अन्तर्दृष्टि वाले अात्मा सहज सुख का अनुभव तभी कर सकते हैं, जब कि उनके सम्यक्त्व, चेतना, चारित्र आदि गुण व्यक्त हो। इसलिए वे उस क्रिया को अपना 'श्रावश्यक-कर्म' समझते हैं, जो सम्यक्त्व आदि गुणों का विकास करने में सहायक हो । अतएव इस जगह संक्षेप में 'अावश्यक की व्याख्या इतनी ही है कि ज्ञानादि गुणों को प्रकट करने के लिए जो क्रिया अवश्य करने के योग्य है, वही 'श्रावश्यक' है। ऐसा 'श्रावश्यक' ज्ञान और क्रिया-उभय परिणामरूप अर्थात् उपयोगपूर्वक की जानेवाली क्रिया है। यही कर्म आत्मा को गुणों से वासित कराने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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