Book Title: Ashtsahastri Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 4
________________ * विषय दर्पण * द्वितीय परिच्छेद पृष्ठ संख्या मंगलाचरण अद्वैतवादी अपना पूर्व पक्ष स्थापित करते हैं। क्रियाकारक आदि भेद न स्वतः से होते हैं न पर से, किन्तु होते अवश्य हैं ऐसा कहने पर आचार्य दोष दिखलाते हैं। एक निरंश आत्मा आकाशादि में जिस प्रकार से अनेक कारकादि का आलंबन है उसी प्रकार से ब्रह्मा में भी अनेक कारकादिकों का आलंबन हो जाये तो क्या बाधा है ? ऐसी शंका के होने पर आचार्य उत्तर देते हैं। ब्रह्माद्वैतवादी सभी चेतन-अचेतन पदार्थों को ब्रह्मा के अन्तः प्रविष्ट ही मानता है, उसका पूर्व पक्ष । आगे की कारिका में आचार्य उसका खण्डन करेंगे। भागम से अद्वैत को सिद्ध करने में भी जैनाचार्य दोषारोपण करते हैं। भाम्नायवाक्य-आगमवाक्य द्वैत को ही सिद्ध करते हैं , अद्वैत को नहीं । स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से परमब्रह्म की सिद्धि होती है इस पर विचार । यह ब्रह्म स्वतः ही सिद्ध है ऐसा मानने पर जैनाचार्य खण्डन करते हैं । अद्वैत शब्द ना समास वाला है अतः अपने विरोधी बास्तविक द्वैत की अपेक्षा रखता है, ऐसा जैनाचार्य समर्थन करते हैं। पुरुषाद्वैत में वास्तव में प्रतिषेध का व्यवहार असंभव है इत्यादि रूप से ब्रह्मावादी अपना पूर्व पक्ष रखते हैं। अब जैनाचार्य ब्रह्मावादियों के पक्ष का निराकरण करते हैं। योगाभिमत पृथक्त्वगुण का खण्डन । पैशेषिक और नैयायिक के भेदपक्ष का जैनाचार्य खण्डन करते हैं। बौद्धाभिमत-संतान की मान्यता का पूर्व पक्ष बौद्धाभिमप्त संतान की मान्यता का जैनाचार्य खण्डन करते हैं । बोद्ध की जिज्ञासा होने पर स्वाभिमत सन्तान के लक्षण को जैनाचार्य स्पष्ट करते हैं । प्रत्यासत्ति से एकत्व की कल्पना होती है ऐसी बौद्ध की मान्यता पर जैनाचार्य उस प्रत्यासत्ति पर विचार करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 688