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विज्ञानाद्वैतवादी ज्ञान को ज्ञेय से सत्रूप से भी भिन्न मानते हैं उस पर विचार । यदि शब्द वस्तु को नहीं कह सकते हैं तब उनका उच्चारण व्यर्थ ही है । निर्विकल्प ज्ञान अवश्य ही अर्थ सन्निधान की अपेक्षा रखता है इसका खण्डन त्रिरूप हेतु को कहने वाले बचन सत्य हैं अन्य नहीं, इस मान्यता का जैनाचार्य निराकरण करते हैं। विभ्रमकांतवादी का कहना है कि ज्ञान अपने स्वरूप या पररूप किसी का निश्चय नहीं करता है, इस पर जैनाचार्य विचार करते हैं। जीवादि वस्तु में परस्पर सापेक्ष ही एकत्व, पृथक्त्व हैं इस बात को जैनाचार्य सिद्ध करते हैं। सभी पदार्थों में सदृश परिणाम होने पर भी एकत्व कैसे हैं ? इस प्रकार से बौद्धों के पूर्व पक्ष का जैनाचार्य खण्डन करते हैं । स्वभाव विच्छेद के अभाव से नील स्वलक्षण और ज्ञान में ऐक्य निमित्त हो जावे किन्तु भिन्न पदार्थों में नहीं है, कारण कि उनमें विच्छेद पाया जाता है ऐसी शंका होने पर आचार्य उत्तर देते हैं। विवक्षा का विषय असत् ही है ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं। अविवक्षा का विषय असत् है ऐसी बौद्ध की मान्यता पर आचार्य समाधान करते हैं। प्रमाण का क्या लक्षण है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य बतलाते हैं । प्रत्यक्ष ज्ञान में परमाणु ही झलकते हैं स्कंध नहीं, बौद्ध की ऐसी मान्यता को आचार्य निराकरण करते हैं। परमाणु ही सत्रूप है, स्कन्ध असत्रूप है ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं। तृतीय परिच्छेद सांख्य आत्म को अकर्ता, अपरिणामी मानते हैं, किन्तु जैनाचार्य कर्ता और परिणामी सिद्ध कर रहे हैं। सांख्य आत्मा के चेतना क्रिया सिद्ध करते हुए पूर्व पक्ष रखता है । कूटस्थ नित्य में अर्थ क्रिया होती है या नहीं ? इस पर विचार । परिणाम और स्वभाव में भेद है ऐसा सांख्य के कहने पर आचार्य समाधान करते हैं। उत्पाद व्यय ही आविर्भाव तिरोभाव नाम वाले हैं। प्रमाण और कारक नित्य ही हैं इस सांख्य की मान्यता का जैनाचार्य निराकरण करते हैं। सांख्य प्रधान की पर्याय ही मानता है उसका निराकरण ।
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