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जैनाचार्य बौद्ध के आपेक्षिक एकांत का निराकरण करते हैं।
योग धर्म और धर्मों को सर्वथा अनपेश ही मानता है, किन्तु जैनाचार्य उसका निराकरण
करते हैं ।
धर्म और धर्मी कथंचित् स्वतः सिद्ध हैं, कथंचित् अपेक्षा से सिद्ध हैं।
षष्टम परिच्छेद
कोई बौद्ध हेतुमात्र से ही सभी तत्वों की सिद्धि मानते हैं किन्तु जैनाचार्य इस एकांत का परिहार करते हैं।
वेदान्ती सभी तत्वों की सिद्धि आगम से ही मानते हैं किन्तु जैनाचार्य इस एकांत का निराकरण करते हैं ।
कोई वैशेषिक और सौगत प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो से ही तत्त्व सिद्धि मानते हैं किन्तु आगम से नहीं मानते हैं जैनाचार्य इनका भी निराकरण करते हैं ।
आप्त और अनाप्त का लक्षण
मीमांसक श्रुति के द्वारा वास्तविक ज्ञान होना मानते हैं, जैनाचार्य उसका निराकरण करते हैं । वेद के अपौरुषेयपने का निराकरण
दुर्भणनत्यादिलक्षण अतिशय वेदों में विद्यमान है अतएव दोनों में समानता नहीं है, ऐसा कहने पर आचार्य उत्तर देते हैं।
मंत्रों की उत्पत्ति जिनेन्द्र भगवान के वचनों से ही होती है अन्य वचनों से नहीं ।
सप्तम परिच्छेद
विज्ञानाईतवादी बौद्ध विज्ञान मात्र तत्व मानता है, उसका निराकरण ।
यदि विज्ञान मात्र तत्त्व माना जावे तब तो साध्य और हेतु दोनों सम्भव नहीं होंगे ।
इस पर बौद्ध कहता है कि अभाव हेतु से अभाव साध्य को सिद्ध करना असिद्ध नहीं है जैसे कि अग्नि के अभाव से धुएं के अभाव को सिद्ध करना । इस शंका के होने पर जैन कहते हैं कि
बहिरंग अर्थ मात्र ही है ऐसी एकांत मान्यता में जैनाचार्य दोष दिखाते हैं।
अप्रत्यक्ष ज्ञानवादी मीमांसक का खण्डन
मीमांसक कहता है कि अर्थ स्वतः प्रत्यक्ष नहीं है तो न सही किन्तु अपने परोक्षज्ञान में प्रतिभासमान पदार्थ प्रत्यक्ष हो जायेंगे इस पर जैनाचार्य उत्तर देते हैं।
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