Book Title: Ashtsahastri Part 3 Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan View full book textPage 6
________________ ( ५ ) पृष्ठ संख्या १२३ १२६ १२७ विनष्ट हआ कारण कैसे कार्य को कर सकेगा कि जिससे वह "कारण" इस नाम को प्राप्त कर सके ? कारण के निरन्वय नष्ट हो जाने पर ही यदि कार्य होता है तो वह कार्य निर्हेतुक हो जावेगा, ऐसा आचार्य कहते हैं । क्षणिक में अनेक स्वभाव नहीं अत: समान ही प्रश्न कसे होगा ऐसी शंका होने पर पुन: जैनाचार्य उत्तर देते हैं। शक्तिमान पदार्थ से शक्तियां भिन्न हैं या अभिन्न ? इन दोनों पक्षों में दोषारोपण करने पर जैनाचार्य उत्तर देते हैं। कारण में स्वभाव भेद माने बिना कार्यों में नानापना असंभव है इस बात को जैनाचार्य अच्छी तरह सिद्ध कर रहे हैं। एक भण के अनंतर वस्तु का न ठहरना ही क्षणिक का स्वभाव है इत्यादि रूप से बौद्ध अपना पक्ष स्थापित करते हैं। जनाचार्य बौद्धों के मन्तव्य का खण्डन करते हुए स्थिति को निर्हेतुक सिद्ध कर रहे हैं । यहां जैनाचार्य, वस्तु से स्थिति सर्वथा भिन्न है या अभिन्न ? इन दोनों पक्षों में दूषण दिखा १२८ १३२ १३८ १३० १४१ वस्तु की स्थिति के उपादान के समान अन्त में भी उसकी स्थिति स्वीकार करना चाहिए । संवेदनाद्वैत का निराकरण यह संवेदनाद्वैत भेद की भ्रांति का बाधक है या अबाधक ? उभय पक्ष में दोष दिखाते हैं। १४५ कार्य कारण में सर्वथा भेद है ऐसा बौद्ध के मानने पर जैनाचार्य दोषों को दिखाते हैं। १४५ १५१ १५२ व्यतिरेक ज्ञान भाव स्वभाव निमित्तक कैसे होगा ? सर्वथा असत् को कार्यरूप होना मानने में क्या हानि है ? सो बताते हैं। यदि असत् कार्य में उत्पादादि तीनों नहीं घटते हैं तब तो प्रभाव लक्षण के होने पर भी उत्पादादि तीनों कैसे घटेंगे? इस पर जैनाचार्य कहते हैं। बौद्ध के मत में यदि एक संतान में कार्य-कारण भाव है तो भिन्न संतानों में भी होगा क्योंकि दोनों में अन्वय का न होना समान है। तन्तु सामान्य और आतान वितानादि रूप तन्तु विशेष ये दोनों परस्पर निरपेक्ष होकर वस्त्र कार्य नहीं कर सकते हैं स्वभाव से ही भिन्न-भिन्न संततियां कम और उसके फल आदि के सम्बन्ध में कारण है ऐसा मानने पर जैनाचार्य समझाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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