Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 2
________________ दिनांक 11 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना । सूत्र: मनुष्य है एक अजनबी - प्रवचन - एक भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी । निर्विकारो गतक्लेश सुखेनैवोयशाम्मति।। ११।। ईश्वरः सर्वनिर्माता नेहान्य हील निश्चयी । अंतर्गलित सर्वाश: शांत: क्यायि न सज्जते ।। 1001/ आयद: सैयदः काले दैवादेवेति निश्चयी । तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वाच्छति न शोचति।। 101।। सुखदुःखे जन्ममृत्यु दैवादेवेति निश्चयी । साध्यादर्शी निरायाम कुर्वन्नपि न लिप्यते।। 10211 चिंतया जायते दुःख नान्यथैहेति निश्चयी। तथा हीन: सुखी शांतः सर्वत्र गलितस्थह ।। 10311 नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी । कैवल्यमिव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्।। 104।। आब्रम्हस्तम्बयर्यन्तमहमेवेति निश्चयी। निर्विकल्य शुचिः शांतः प्राप्ताप्राप्तविनिर्वृत।। 10511 नानाश्चर्यमिद विश्व च किचिदिति निश्चयी। निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किचिदिव शाम्यति ।। 106।। मनुष्य है अजनबी किनारे पर। यहां उसका घर नहीं। न अपने से परिचित है, न दूसरों से परिचित है। और अपने से ही परिचित नहीं तो दूसरों से परिचित होने का उपाय भी नहीं। लाख उपाय हम करते हैं कि बना लें थोड़ा परिचय, बन नहीं पाता। जैसे पानी पर कोई लकीरें खींचे, ऐसे ही हमारे परिचय बनते हैं और मिट जाते हैं; बन भी नहीं पाते और मिट जाते हैं। जिसे कहते हम परिवार, जिसे कहते हम समाज - सब भ्रांतियां हैं; मन को भुलाने के उपाय हैं। और एक ही बात आदमी भुलाने की कोशिश करता है कि यहीं मेरा घर है, कहीं और नहीं। यही समझाने की कोशिश करता है : यही मेरे प्रियजन हैं, यही मेरा सत्य है। यह देह, देह से जो दिखाई

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