Book Title: Aparigraha Darshan Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra View full book textPage 4
________________ जीवो जीवस्य जीवनम् संसार के सभी धर्म अहिंसा और सत्य की संस्कृति का आधार मान कर चलते हैं। जब तक हमारे पारस्परिक व्यवहार में ईमानदारी नहीं आती, एक दूसरे की लाश पर अपना महल खड़ा करने के स्थान पर परस्पर सहयोग की भावना जागत नहीं होती, तब तक लाख आविष्कार करने पर भी मानव, दानव ही बना रहेगा। मानवता के विकास का माप-दण्ड पृथ्वी, आकाश और जल पर आधिपत्य नहीं, किन्तु अपने पर आधिपत्य है । अपने आप पर अपना अधिकार हो। अहिंसा को आदर्श रूप में स्वीकार करने पर भी इस बात पर बहुत कम सोचा गया है, कि उसे जीवन में कैसे उतारा जाए । यदि हम यह मान कर चलते हैं, कि 'जीवो जीवस्य जीवनम्' तो अहिंसा केवल सिद्धान्त की बात रह जाती है। जीने की इच्छा प्रत्येक प्राणी में स्वाभाविक रूप से विद्यमान है, और उसकी पूर्ति यदि दूसरे के प्राणों पर निर्भर है, तो हो चुका । फिर सारे संसार को आत्मरूप मानकर मित्रता का उपदेश ऐसा ही है, जैसे भूखे को कहा जाए -'रोटी में भी तुम्हारी आत्मा है, इसलिए इसे मत खाओ।' इस प्रश्न का उत्तर जैन परम्परा ने दिया है। उसने कहा-'जीवो जीवस्य जीवनम्' का सिद्धान्त जंगली पशुओं के लिए हो सकता है, जो परस्पर सहमोग से रहना नहीं जानते । मानव-जोवन का आधार तो 'परस्परोपग्रहो जीवनाम है। अर्थात् एक जीव दूसरे जीव का उपकारी या सहयोगी बनकर भी जी सकता है । यदि हम गाय की सेवा करके दूध का कुछ हिस्सा प्राप्त कर लेते हैं, तो यह परस्परोग्रह है। इसके विपरीत गाय का मांस खाना ‘जीवो जीवस्य जीवनम्' है । इस प्रकार भगवान् महावीर ने केवल त्याग का उपदेश नहीं दिया, किन्तु मानव-जीवन के सुखपूर्वक निर्वाह के लिए एक नया दृष्टिकोण भी दिया । किन्तु परस्परोपग्रह का सिद्धान्त बताकर ही वे चुप नहीं रहे । उसे जीवन में उतारने के लिए उन्होंने एक नया सिद्धान्त उपस्थित किया। और वह है अपरिग्रह । व्यक्ति, समाज या राष्ट्रों में परस्पर संघर्ष का कारण यह नहीं है, कि उनके पास निर्वाह के साधनों की कमी है । संसार की जनसंख्या जितनी है, उसे देखते हुए उपज कम नहीं है । फिर भी कृत्रिम अभाव की सृष्टि की जाती है। एक व्यक्ति आग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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