Book Title: Anusandhan 2019 10 SrNo 78
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसन्धान-७८
- २ छे । अभी(भि)मांन मीढे विवेक नाहरनइं लाते मार्यो - टाल्यो । एतई जीव वनइं अभी(भि)मांन आवइ तिवारई विवेक नासे एही अचीरज ।४।
माछरकै मुखी मैगल मायउ, राजा घरि घरि हीडै । एक थंभै पंच गज बांध्या, राणी हो इकण खंडै ॥५॥ च० ॥
कलीकालना जीव मच्छर समांनि जांणवा । जे भणी पुन्याई थोडी, तेणइ मिथ्यातपणुं घणुं ते जिनवचननइ योगई मिथ्यात तजी एकेक जीव समकित रूपीयो मेगल पांमइ छइ । राजा ते जीव कर्मनइं वसि ८४ लक्ष जीवाजोन्यमांहिं भमे । एक सरीररूपीइ थांभइ ५ इंदिरुपीया हाथी बांध्या छे । अवृत-रूपणी राणी ते वृत्तिरूपीया कणनी खंडना करे छइ ॥५॥
आठ नारि मिलि इक सुत जायो, बेटइ बाप पढायो । चोर वसियो मिंदर मिआइ, घरथी साह कढायो ॥६॥ च० ॥
मूल आठ कर्मनी प्रकृति संसाररुपीयो पुत्र प्रगट कीधो छइ । कपट बेटइ मोह रूप पितानइ वधार्यो छे । विषयरुपीयो चोर ते कायारूप मंदिरमांहिं वस्यो छइ । साहासीकपणारूप सीह तथा साह घरमांहिंथी काढीने ॥६॥
एक आगि सगलो जल पीवइ, वेस्या घुघट काढइ । कुलवंति कुल-लाज तजी करी, घरि घरि बाहिरि हिडइ ॥७॥च० ॥
लोभ - तृष्णा रूपणी आगि सत्य-संतोष रूपीउं जल सोषइ छइ । माया रूपणी वेस्या ते मीठां वचनरूपीयो बूंघटो करइ । सर्ववृत्तिरुपणी कुलवंती स्त्री पोतानी लाज छांडीनइं असंयमरुपीयां थानक घणां घर छइ, तिहां जाइ ॥७॥
ए परमारथ ग्यान सुणी करी, आत्मध्यान सुध्यावउ । विनयसागर मूनिवर उपदेसइ, धर्मे निज मति लावो ॥८॥च० ॥
ए वातनो परमार्थ ज्ञानमय श्री वीतरागना वचननी परिं सांभलीनइ, आत्मध्यांन कहीइं शुकलध्यान ते ध्यावो-प्रवर्तो । विनयसागर कहे छइ, धर्मेइं मति आंणो । जिम संसारनां जन्म-जरा-मरणनां दुःखी टालीनइं मुगतिनां सुख पांमो ॥८॥
॥ इति हरियाली ॥

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