Book Title: Anusandhan 2009 12 SrNo 50
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 108
________________ डिसेम्बर २००९ ९५ व्यवहार करूँगा । जो इस प्रकार करते हैं वे नर-नारी संसार से पार होते हैं । (पद्य ४५ से ४७) पाक्षिक, चातुर्मासिक और संवत्सरी के दिन क्षमायाचना करूँगा । सुगुरु के पास में आलोयणा ग्रहण करूँगा । अन्त में पर्यन्ताराधना स्वीकार करूँगा । कवि कहता है कि इस प्रकार श्रावक विधि के अनुसार दिनचर्या का जो पालन करता है वह आठ भावों में मोक्ष सुख को प्राप्त करता है । यह रास पद्मानन्दसूरि ने संवत् १३७१ में बनाया है । (पद्य ४८ से ४९ ) जो इस रास को पढ़ेगा, सुनेगा, चिन्तन करेगा उसका शासनदेव सहयोग करेंगे । जब तक शशि, सूर्य, पृथ्वी, मेरु, नन्दनवन, विद्यमान हैं तब तक यह जिनशासन जय को प्राप्त हो । (पद्य ५०) इस प्रकार इस रास में श्रावक की दिनचर्या किस प्रकार की होनी चाहिए उसका सविस्तर वर्णन किया गया है । यह वर्णन केवल बारह व्रतों का वर्णन ही नहीं है अपितु उसकी विधि के अनुसार आचरण करने का विधान है । जैसलमेर भण्डार के ग्रन्थ से प्रतिलिपि की गई है । यह कृति प्राचीनतम और रमणीय होने से यहाँ दी जा रही है : श्रावक - विधि रास पायपउम पणमेवि, चउवीसहं तित्थंकरहं । श्रावकविधि संखेवि, भणइ गुणाकरसूरि गुरो ॥१॥ जहिं जिणमंदिर सार, अंतु तपोधनु पावियई । श्रावग जिन सुविचारु, धणु तृणु जलु प्रचलो ||२|| न्यायवंत जहिं राउ, जण धण धन्नरउ माउलउ । सुधी परि ववसाउ, सूधइ थानकि तहि वसउ ||३|| तम्मिहिं इहु परलोय, करमिहि इहलोउ पुणु । तह नर आउ न होउ, जसु तहं रवि ऊगमइ ||४|| तउ धम्मिउं उट्ठेइ, निसि चउघडियइ पाछिलए । जिणि नवकारु पढेइ, पहिलउ मंगलु मंगलहं ॥ ५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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