Book Title: Anusandhan 2009 12 SrNo 50
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसन्धान-५०
आनो अनुवाद आ प्रमाणे छे : "अविसंवादी विशद ज्ञान प्रत्यक्ष छे. ते मुख्य अने सांव्यवहारिकना भेदथी बे प्रकार छे. प्रत्यक्षथी भिन्न बाकीनां बधां ज्ञानो परोक्ष छे. आ सामान्यपणे प्रमाणोनो सङ्ग्रह छे."
आ स्थले - "मुख्यं संव्यवहारेण संवादि विशदं मतम् ।"
आ प्रमाणे वाचना होवी जोईए, एम समजाय छे. केमके अहीं प्रत्यक्ष अने परोक्ष ए बे प्रकारना ज्ञाननुं संकलित-सङ्ग्रहात्मक प्रतिपादन छे, तेथी प्रत्यक्षना बे भेदनुं पुनःप्रतिपादन अनावश्यक जणाय छे. जो खरेखर बे भेदनुं प्रतिपादन करवू होत, तो "मुख्य-संव्यवहाराभ्यां" एवी रजूआत करवी पडी होत. अहीं श्लोकनो अर्थ आम घटावी शकाय : "मुख्यं, संव्यवहारेण संवादि, विशदं ज्ञानमध्यक्षं मतम्; अन्यद्धि परोक्षम्, इति सङ्ग्रहः ।"
___आ विषयनी चोकसाई माटे सम्मतितर्क-टीका जोई, तो त्यां पण 'मुख्यसंव्यवहारेण' एवो ज पाठ सम्पादित थयो छे. 'संवादि विशदं' एम छे. परन्तु, विचार करतां 'मुख्यं संव्यवहारेण' पाठ ज वधु समुचित लागे छे..
सम्मति-टीका (पृ. ५९५)मां आ बे पद्योना पेरेग्राफ ऊपर जे विषयपरिचयनी पंक्ति []मां ते ग्रन्थना सम्पादकोए लखी छे, तेमां पण कशंक खूटतुं जणाय छे. तेमणे लखेल पंक्ति आम छे : [मुख्यवृत्त्या संव्यवहारेण च परोक्षप्रमाणस्य स्वरूपविभजनम्] । हवे ऊपर नोंध्युं तेम जो 'मुख्यं' एवो पाठ ज उचित जणातो होय तो 'मुख्यवृत्त्या संव्यवहारेण च' एवं तारण अयोग्य ठरे छे. वळी, आ पद्यमां तो प्रत्यक्ष-परोक्ष बन्नेनो सङ्ग्रह प्रतिपादित छे, अने सम्पादको फक्त 'परोक्षप्रमाणस्य' एटलुं ज नोंधीने अटकी जाय छे; प्रत्यक्षनी वात ज तेओ वीसरी गया छे !
प्रासङ्गिक रीते ए पण जाणी शकाय छे के टीकामां टांकेलां बे पद्योनुं स्थळ सम्मतितर्क ग्रन्थना पृ. ५९५ मां जडे छे. हवे महेन्द्रकुमारना अनुवादमां मुद्रणदोषने कारणे फक्त '५९' एवो आंकडो छपायो छे, तो श्रीनगीनभाईना गुर्जर भाषान्तर-ग्रन्थमां पण '५९' नो ज आंक 'जोवा मळे छे ! अस्तु. आवी क्षतिने परिणामे मूळ सन्दर्भ सुधी पहोंचवानुं जिज्ञासुओ माटे केटलुं कठिन बने, ते ज कहेवं प्राप्त छे.
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