Book Title: Anusandhan 2009 12 SrNo 50
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 106
________________ डिसेम्बर २००९ श्री पद्मानन्दसूरि रचित श्रावक - विधि रास म. विनयसागर इस रचना के अनुसार 'श्रावक विधि रास' के प्रणेता श्री गुणाकरसूरि शिष्य पद्मानन्दसूरि हैं । इसकी रचना उन्होंने विक्रम संवत् १३७१ में की है । इस तथ्य के अतिरिक्त इनके सम्बन्ध में इस कृति में कुछ भी प्राप्त नहीं है और जिनरत्नकोष, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास और जैन गुर्जर कविओं में कुछ भी प्राप्त नहीं होता है । अतएव यह निर्णय कर पाना असम्भव है कि ये कौन से गच्छ के थे और इनकी परम्परा क्या थी ? ९३ शब्दावली को देखते हुए इस रास की भाषा पूर्णतः अपभ्रंश है प्रत्येक शब्द और क्रियापद अपभ्रंश से प्रभावित है । पद्य ८, २१, ३६, ४३ में प्रथम भाषा, द्वितीय भाषा, तृतीय भाषा, चतुर्थ भाषा का उल्लेख है । भाषा शब्द अपभ्रंश भाषा का द्योतक है और पद्य के अन्त में घात शब्द दिया है जो वस्तुतः 'घत्ता' है । अपभ्रंश प्रणाली में घत्ता ही लिखा जाता है । वास्तव यह घत्ता वस्तुछन्द का ही भेद है । Jain Education International इस रास में श्रावक के बारह व्रतों का निरूपण है । प्रारम्भ में श्रावक चार घड़ी रात रहने पर उठकर नवकार मन्त्र गिनता है, अपनी शय्या छोड़ता है और सीधा घर अथवा पोशाल में जाता है जहाँ सामायिक, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करता है । प्रत्याख्यान के साथ श्रावक के चौदह नियमों का चिन्तवन करता है । उसके पश्चात् साफ धोती पहनकर घर अथवा देवालय में जाता है और सुगन्धित वस्तुओं से मन्दिर को मघमघायमान करता है । अक्षत, फूल, दीपक, नैवेद्य चढ़ाता है अर्थात् अष्टप्रकारी पूजा करता है । भाव स्तवना करके दशविध श्रमण-धर्म-पालक सद्गुरु के पास जाता है । गुरुवन्दन करता है । धर्मोपदेश सुनता है, जीवदया का पालन करता है । झूठ नहीं बोलता है । कलंक नहीं लगाता है । दूसरे के धन का हरण नहीं करता है । अपनी पत्नी से सन्तोष धारण करता है और अन्य नारियों को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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