Book Title: Anekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 13
________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 प्रमाण और नय सम्पूर्ण वस्तु के ज्ञान को प्रमाण तथा उसके एक धर्म के ज्ञान को नय कहा जा है। एक अंश के अपने विशिष्ट स्वरूप में अस्तित्व के लिए अंशी पर आश्रित होने के कारण उसका ज्ञान भी अंशी के ज्ञान पूर्वक ही हो सकता है। इसलिये अकलंकदेव नय को परिभाषित करते हुए कहते हैं "प्रमाण द्वारा प्रकाशित वस्तु के एकांश का प्ररूपक ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता है। यह पदार्थ के स्वरूप के प्रति विचार पूर्वक निर्णय करने का उपाय है तथा इसके द्वारा पदार्थ परीक्षा (परि+इक्षा विभिन्न प्रमाणों से भली प्रकार देखना) पूर्वक जाना जाता है। नयात्मक ज्ञान द्वारा मनमाने चिन्तन पूर्वक वस्तु के किसी धर्म के स्वरूप का निश्चय नहीं किया जाता बल्कि "इसके द्वारा युक्ति पूर्वक वस्तु का ग्रहण किया जाता है।'' प्रमाण सकलादेशी ज्ञान है। नय को विकलादेशी कहा जाता है। जिस प्रदार्थ को पहले विभिन्न प्रमाणों द्वारा जान लिया गया है इसी पदार्थ के एक अंश के प्रति किसी प्रकार की समस्या या जिज्ञासा उत्पन्न होने पर उसके निराकरणार्थ परीक्षात्मक नय ज्ञान की प्रवृति होती है जिसमें युक्तियों द्वारा अर्थात विभिन्न प्रमाणों का अवलम्बन लेते हुए वस्तु के एकांश के विशिष्ट स्वरूप का निश्चय किया जाता है। अनन्तवीर्य कहते हैं "ज्ञाता द्वारा साक्षात्कार किये गये अर्थ में (अभिहित अर्थात् वर्णित द्वारा जाने गये और अनुमित अर्थ में भी) किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होने पर वस्तु के प्रति पुनः ऊहापोहात्मक चिन्तन के अभाव में भ्रम का निवारण नहीं हो पाता। इसलिये आन्तरिक बाह्य सभी पदार्थों के प्रति नय का अनुष्ठान किया गया है। 10 किसी भी वस्तु का एक विशेष धर्म जिस विशिष्ट स्वरूप से युक्त होकर अस्तित्व रखता है उस रूप में उसका अस्तित्व सम्पूर्ण वस्तु पर, वस्तु के अन्य समस्त धर्मों पर आश्रित होता है। इसलिये प्रयोजन के अनुसार वस्तु के एक विशेष धर्म को ग्रहण करने वाले नयात्मक ज्ञान की प्रवृत्ति प्रमाण ज्ञान द्वारा वस्तु के परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मात्मक स्वरूप को ग्रहण करने के उपरान्त ही हो सकती है।। नय शब्द प्रमाण के विभिन्न अंश हैं। वस्तु के एक धर्म को जानने का साधन एक नय ही है तथा विभिन्न नयों से वस्तु के समस्त धर्मों को जानने के उपरान्त ही सकलादेशी शब्द प्रमाण की उत्पत्ति होती है। एक नय वस्तु के एक अंश का प्रतिपादक है। जिस प्रकार समुद्र का एक देश न तो समुद्र है न ही असमुद्र है बल्कि समुद्रांश है उसी प्रकार एक नय का विषय न तो सम्पूर्ण वस्तु है, न ही अवस्तु है बल्कि वस्त्वंश है। इसलिये एक नय स्वयं प्रमाण या अप्रमाण न होकर प्रमाणांश है। तथा अपने आप में पूर्ण सत्य न होकर सत्यांश है। नय द्वारा प्रतिपाद्य धर्म का अस्तित्व धर्मी के अन्य धर्मी से निरपेक्ष रूप से नहीं होता बल्कि वह उनसे सापेक्ष रूप से ही विद्यमान होता है। इसलिये एक नय नयान्तर सापेक्ष रूप से ही सम्यक् होता है तथा अन्य नयों से निरपेक्ष रूप से अपने विषय का प्रतिपादन करने वाला नय मिथ्या है। इसलिये परस्पर निरपेक्ष नयों से वस्तु के समस्त धर्मों को जान लेने पर भी उनसे एक

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