Book Title: Anekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 3
________________ निर्ग्रन्थ मुनि जरस परिग्गहगहणं अप्पं वहुयं च हवई लिंगस्स। सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहियो निरायारो।। जिस वप में थोड़ा वहुत परिग्रह ग्रहण होता है, वह निन्दनीय वेष है। क्याकि जिनशासन में परिग्रहहित का ही निर्दोप साधु माना गया है। णिग्गंथमोहमुक्का वावीस परीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि।। परिग्रह विहीन, स्वजन; परिजन एवं पर पदार्थों के मोह से रहित, वाईस परीपहों को सहने वाले, क्रांध आदि कपायों के विजेता, सभी प्रकार के पाप एवं आरंभ से रहित मुनि मोक्षमार्ग के अधिकारी हैं। जहजायरुवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्तेसु। जइ लेइ अप्पवहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ।। यथाजात बालक के समान नग्न मुद्रा के धारक मुनि अपने हाथ में तिल-तुप मात्र भी परिग्रह ग्रहण नहीं करते हैं। यदि वे थोड़ा-बहुत परिग्रह ग्रहण करते हैं तो निगाद जाते हैं। णवि सिज्झइ वत्थहरो जिणसासणे होइ तित्ययरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सब्बे।। जिनशासन में कहा गया है कि वस्त्रधारी यदि तीर्थकर भी हो तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है। एक नग्न वेप ही मोक्षमार्ग है, शेष सव मिथ्यामार्ग हैं।

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