Book Title: Anekant 1945 Book 07 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ अनेकान्त [ वर्ष ७ कृक सम्पदाय इन दोनोंये भिन्न कोई तीसरा ही प्रसोन ठाक बैठते है। होता है और कुछ प्राचीन उल्लेखांक मिल जाने से अब हम इसी तरह एक जगह बृहस्कल्पसूत्रके संघदामणिकृत इस नतीजेपर पहुंचे हैं कि यह कृचंक जैनमाधुओका एक लघुभाष्य और मकी वृनिमे भी कृचिक साधुनोंकी चर्च मा सम्प्रदाय होना चाहिए जो दाढी-मूंछ रखना होगा। आई है। प्रसङ्ग यह है कि निर्गन्थियो (आर्यिकाओं) को प्राचीन काल में जटाधारी, शिखाधारी, मुडयिा, कूर्चक, किस किमी वस्त्र नहीं लेना चाहिए-- बखधारी और नग्न श्रादि अनेक प्रकारके जैन माधु थे। कालिए य भिक्खू मुइवादी कुच्चिए अवेमथी। जान पड़ता है इसी तरह जैनोंमे भी माधुओंका एक एमा वाणियग तरुण संसह मेहुणे भोइए चेव ॥२३॥ प्रदाय था, जो दादी-मूंछ (कूर्चक) रखने के कारण कृर्चक इसमे कापालिक मितु (बौद्ध माध) और शुचिवादी कहलाता होगा। साधुनोंके माथ कुञ्चित्र या चिों का नाम है । वृत्तिकार प्राचार्य जिनमेनके द्वारा वरांगचरितके कर्ता जटाचार्य कूचिकका अर्थ 'कूचंन्धर' अर्थात कृचं धारण करने वाले की जो स्तति की गई है, उसमें उनकी हिलती हुई जटानी करते है और प्रगकी रष्टिय ये दादी-मछ वाले अन्य वा वर्णन किया है, जो जैनमाधुओके 'जटी' सम्प्रदायका धर्मी माध ही जान पड़ते है। श्राभाय देना है। इसी तरह दादी-मूंछ रखने वाले कूचक भागे कचका उल्लेख करने वाले दोनो दानपत्रोंकी सम्प्रदायकी भी कल्पना करनेको जी चाहता है। प्रतिलिपि दी जाती है-- स्व. मि० काशीनाथ तैलंगके भनुमार कदम्ब वंशके (प्रथम दानपत्र ) पूर्वोक दानपत्रासाकी पाँचवीं शताब्दीमे पहलेके हैं, अत- [11 स्वस्ति [] जयति भगवान्जि(नन्द्रो गुणपर उस समय और उपमे परले यह एक प्रसिद्ध जैन रुन्द्र ४ प्रथितपरमकारुणिक त्रैलोक्याश्वामकरी सम्प्रदाय था और उसके 'वारिषेणाचार्यसघ' जैसे अनेक [2] दयापताकोच्छिता यस्य [1] कदम्बकुजसकेती: संघ भी थे। हेतो पुण्यकमकृची या कृर्चकोंका उल्लेख उत्तराध्ययनकी शान्या- [3] पदाम् श्रीकाकुस्थनरेन्द्रस्य सूनुर्भानुरिवापर [0] चार्य कृत टीकामें 'वाचकवचनं' कहकर इस प्रकार किया __ श्रीशान्तिवर-- गया है [4] यति राजा राजीवलोचनः खलेव बनिताकृष्टा सम्यक्त्वज्ञानशीलानि तपश्वेतीह सिद्धये। [5] येन बमोर्दिषद्गृहात् [1] तप्रियज्येष्ठतनय. तेषामुपग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् ॥१॥ श्रीमृगेशनराधिपः । जटी कुर्ची शिग्वी मुण्डी चीवरी नम्न एव च । [9] लोकधर्मविजयो बिजसामन्तपूजित: [I] मन्वा तप्यन्नपि तपः कष्टं मोठ्याद्धिस्रो न सिद्धर्यात ॥२॥ दान दरिद्वाणाम् सम्यग्ज्ञानी दयावास्तु ध्यानी यम्नप्यते तपः। [7] महाफलमितीव यः स्वय भयदरिद्रा(दो)पि नग्नश्चीवरधारीवा मसिद्धति महामुनिः॥३॥ शत्रुभ्यो दामहामयम् [] इस उद्धरसके दूसरे श्लोकमे जटाधारी, कूचंधारी, [8] तुझगाकुलोरसादी पशवप्रलयानलः स्वार्यके नृपती चोटीधारी, मुखिया, चीवर (वस) धारी और नग्न साधुनों भक्त्या के नाम आये हैं और जिस क्रमसे आये हैं उस पर ध्यान [0] कारयित्वा जिनालयम् [u] श्रीविजयपनाशिकायाम् देनसे मालूम होता है कि कुर्ची साधु मयूरपिच्छि वाले यानि(नी)यनिर्ग्रन्थकूच नही किन्तु दादी मछवाले होंगे । जटावालो, चोटीवालों [10] कानामस्वजयिके प्रथमे वैशाखे संवत्सरे कार्तिकऔर विना बालों वाले मंडियोके बीच दाढ़ी-मूंछवाले ही पौर्णमास्याम् । १ काव्यानुाचन्तने यस्य जटा: प्रचलवृत्तयः । [11] मातृसरित प्रारभ्य मा इनिणीसामान् राजमानेन अथांगस्मान्वदन्तीव जटाचा:स नोऽवतात् ।।ा. पु. अयो(ब)स्त्रि (रित्र) शरिवर्तनं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 528